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भक्ति और उसके प्रकार

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अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही भक्ति है। भक्ति प्रेम की वह धारा है जो हृदय के समस्त कलुषों को बहा कर उसे निर्मल तो करती है साथ ही भक्त को भी इस लोक से परे, वहाँ ले जाती है, जहाँ केवल आनंद ही आनंद है; जहाँ ईश्वर हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए गीता में कृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का उपदेश दिया है। भक्ति को इनमें सबसे उत्तम मन गया है क्योंकि यह सहज साध्य है तथा यह इसलिए भी उत्तम है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण समर्पण को प्रधानता दी गई है। सम्पूर्ण समर्पण के बिना भक्ति संभव नहीं हो सकती है और अहंकार के रहते आत्म-समर्पण नहीं हो सकता है - "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।" कुछ लेने के लिए झुकना पड़ता है। विनीत याचक को ही दान दिया जा सकता है, रौब के साथ क्या याचना संभव है? रौब से याचना नहीं डकैती की जाती है। वैसे, भक्ति तो निष्काम की जाती है। भक्त की इच्छा यदि कुछ होती भी है तो भी वह अपने आराध्य के सामीप्य की इच्छा और अनुकम्पा की कामना से अधिक  कुछ नहीं होती। परन्तु इसके लिए भी आराध्य का अनुराग्रह आवश्यक है, और उनके अनुग्रह के लिए विनय आवश्यक है।

भक्ति क्या है ?

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                                                                भक्ति क्या है ? भक्ति क्या है इस प्रश्न का उत्तर देना सहज नहीं है। भक्ति का जन्म और विकास दोनों ही जन सामान्य के बीच हुआ। जन सामान्य को इसे परिभाषित करने की आवश्यकता प्रतीत ही नहीं हुई क्योंकि सामान्य जनता इसे बिना परिभाषा के भी समझती है।  हाँ बहुत से आचार्यों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया तथा  अपने-अपने मत के अनुसार परिभाषित  किया भी, परन्तु जन सामान्य को परिभाषा की आवश्यकता न तब थी और न अब ही है।  बचपन में मेरे लिए भक्ति आदि को समझना अधिक कठिन नहीं था। मैं भक्ति को समझ सकता था, अंदर से, अंतर से। आयु कम थी, बुद्धि अल्पविकसित थी, तब भी उसे मैं  समझ सकता था लेकिन अब समझना मुश्किल लगता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भक्ति को समझने के लिए बुद्धि की आवश्यकता उतनी नहीं है जितनी हृदय  की है। भक्ति हृदय का व्यापार है और यह  हृदय के द्वारा ही संभव है।  अब इतना तो तय है की हर सामान्य भारतीय भक्ति को हृदय से समझता है, मन से समझता है। उन्हें भाषा की आवश्यकता नहीं पड़ती है पर उनका क्या जिनके भावात्मक व्यापारों में भी बुद्धि दखल द