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आशा है।

                                                            *१ स्रष्टा उन दिनों सृष्टि करने में व्यस्त थे। प्रतिदिन ही वे किसी न किसी जीव की रचना करते थे और प्रत्येक जीव की रचना करते समय वे किसी विशेष गुण या प्रवृति को ध्यान में रखते थे। हाथी का सृजन उन्होंने बल को ध्यान में रख कर किया तथा घोड़े का सृजन हुआ गति को ध्यान में रख कर। इसी तरह विभिन्न प्रकार के जीवों की रचना होती गई और उनसे धरित्री सुशोभित होती गई। उस दिन वे कुछ उद्विग्न प्रतीत हो रहे थे। कारण यह था कि  वे अपनी कल्पना शक्ति की सीमा तक सृजन कर चुके थे परन्तु मानसिक तृप्ति उन्हें अब भी नहीं मिली थी। बड़े ही अन्यमनस्क ढंग से उन्हंने एक जीव की रचना शुरू की परन्तु आज  उनके मन में कोई विशेष गुण नहीं था, जिसके आधार पर वे अपनी रचना करते। सृजन क्रिया के संपादन के पश्चात जब उनकी दृष्टि अपनी रचना पर पड़ी, तब वे सोच में पड़ गए। यह नया जीव न हाथी के जैसा विशाल और बलवान ही था न घोड़े जैसा वेगवान्। आजतक स्रष्टा की कोई रचना व्यर्थ नहीं गई थी। परन्तु आज उन्हें अपनी रचना पर संदेह हो रहा था। "क्या इतने  विशाल, भयंकर और बलशाली जीवों