संदेश

जून, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चेतना बनाम जड़ता

           जड़ता में स्थिरता है, चेतनता उसका विरोधी गुण है जो जड़ता के प्रति विद्रोह है। जड़ता में जकड़न है, बंधन है। चेतना उस जकड़न से, उस बंधन से मुक्ति चाहती है। जड़ता का स्वभाव है यथास्थिति, अर्थात जो जैसा है वैसा ही रहे। चेतना हर वस्तु में नए-नए रूपों का संधान करती है। 'जड़ता है जीवन की पीड़ा निस-तरंग पाषाणी क्रीड़ा' जड़ता पाषाण का गुण है। यदि किसी तक्षक की चेतना उस पाषाण की जड़ता में नारायण की करुण मूर्ति देखने में सक्षम है तो उसकी चेतना पाषाण की जड़ता का विरोध करेगी और वो उसकी अनगढ़ता को नारायण के स्वरूप में गढ़ देगा। यदि वो जड़ पाषाण शिल्पी के हाथ न लगा तो अपनी जड़ता में स्थिर रहेगा। स्थिरता ही उसका गुण है। किंतु चेतना यथास्थितिवादी नहीं होती। उसे परिवर्तन चाहिए, नवीनता चाहिए, मुक्तिबोध के शब्दों में - 'जो है उससे बेहतर चाहिए।' जड़ता की स्थिति में कोई तरंग नहीं होती, कोई हलचल, कोई संवेदना नहीं होती। तरंगें चेतनावस्था में उठती हैं- सुख-दुखात्मक तरंगें। हममें चेतना है, अतः हम सुखी होते हैं तो सुख अतिरेक में नाचने लगते हैं और दुखी होते हैं तो दुख की अतिशयता में विध्वंश मचाने ल