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'कुटज' निबन्ध

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  कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या! पूर्व और अपर समुद्र-महोदधि और रत्नाकर-दोनों का दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदण्ड’ कहा जाय तो गलत क्या है ? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इस ‘शिवालिक’ श्रृंखला कहते हैं। ‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है, ‘शिवालक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है? लगता तो ऐसा ही है। ‘सपाद-लक्ष’ या सवा लाख की मालगुजारी वाला इलाका तो वह लगता नहीं। शिव की लटियाई जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनंदा का स्रोत्र यहाँ से काफी दूर पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। सम्पूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलकाजल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि-श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात-नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ दिख अवश्य जाते हैं, पर कोई हरियाली नहीं। दूब तक तो सूख गई है। काली-काली चट्टानें और बीच-बीच में शुष्कता की अंतर्निरुद्ध सत्ता का इज

'शिरीष के फूल'

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     जहाँ बैठके यह लेख लिख रहा हूँ उसके आगे-पीछे, दायें-बायें, शिरीष के अनेक पेड़ हैं। जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्घूम अग्निकुण्ड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गर्मी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं। कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आसपास बहुत हैं। लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की तुलना नहीं की जा सकती। वह पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसन्त ऋतु के पलाश की भाँति। कबीरदास को इस तरह पन्द्रह दिन के लिए लहक उठना पसन्द नहीं था। यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़-के-खंखड़- ‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास’! ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले। फूल है शिरीष। वसन्त के आगमन के साथ लहक उठता है, आषाढ़ तक तो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मन्त्रप्रचार करता रहता है। यद्यपि कवियों की भाँति हर फूल-पत्ते को देखकर मुग्ध होने लायक हृदय विधाता ने नहीं दिया है, पर न

ललित निबन्ध और कुबेरनाथ राय के निबन्ध

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 कुबेरनाथ राय के निबंधों में शिल्पगत प्रयोग  अभिषेक कुमार पाण्डेय  शोधार्थी (पीएचडी) हिंदी एवं तुलनात्‍मक साहित्‍य विभाग  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा        हिन्दी ललित निबंधकारों की परंपरा में कुबेरनाथ राय का नाम अपना विशेष महत्व रखता है। न केवल इसलिए कि वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से चली आ रही परंपरा के समर्थ वाहक हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि उन्होंने इस चली आ रही परंपरा में कुछ नया जोड़ा है -- उनकी रचनात्मक मौलिकता ने इस परंपरा को एक नया रूप दिया है। T.S. इलियट का यह कथन उनके रचना कर्म के सन्दर्भ में पूरी तरह से चरितार्थ होता है कि- "The past should be altered by the present as much as the present is directed by the past."1 क्योंकि कुबेरनाथ राय ने अपने रचनाकर्म में पहले से चली आ रही परंपरा का संवर्धन किया है, उसके निकष का अनुशासन माना है तथा नवीन प्रयोगों द्वारा उस परंपरा को नया रूप भी दिया है।          हिन्दी साहित्य में जब भी निबंधों की बात आती है तब दो नाम प्रमुख रूप से सामने आते हैं- पहला आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का तथा दूसरा आचार्य हजारीप्रसाद