ललित निबन्ध और कुबेरनाथ राय के निबन्ध

 कुबेरनाथ राय के निबंधों में शिल्पगत प्रयोग 

अभिषेक कुमार पाण्डेय 

शोधार्थी (पीएचडी)

हिंदी एवं तुलनात्‍मक साहित्‍य विभाग 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

      

हिन्दी ललित निबंधकारों की परंपरा में कुबेरनाथ राय का नाम अपना विशेष महत्व रखता है। न केवल इसलिए कि वे आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से चली आ रही परंपरा के समर्थ वाहक हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि उन्होंने इस चली आ रही परंपरा में कुछ नया जोड़ा है -- उनकी रचनात्मक मौलिकता ने इस परंपरा को एक नया रूप दिया है। T.S. इलियट का यह कथन उनके रचना कर्म के सन्दर्भ में पूरी तरह से चरितार्थ होता है कि- "The past should be altered by the present as much as the present is directed by the past."1 क्योंकि कुबेरनाथ राय ने अपने रचनाकर्म में पहले से चली आ रही परंपरा का संवर्धन किया है, उसके निकष का अनुशासन माना है तथा नवीन प्रयोगों द्वारा उस परंपरा को नया रूप भी दिया है।


         हिन्दी साहित्य में जब भी निबंधों की बात आती है तब दो नाम प्रमुख रूप से सामने आते हैं- पहला आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का तथा दूसरा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का। शुक्ल जी के निबंध वस्तुनिष्ठ एवं वैचारिक निबंधों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि द्विवेदी जी के निबंधों को भावात्मक निबंध की कोटि में  गिन लिया जाता है। यह एक प्रकार का सरलीकरण है क्योंकि उनके प्रखर पाण्डित्य, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंष के अगाध ज्ञान, मानवतावादी दृष्टि, भारतीय परंपरा के प्रति उनके दृष्टिकोण, लोक और शास्त्र में समान रूप से रस लेने वाली उनकी अभिरुचि तथा उनके लालित्य बोध आदि से युक्त निबंधों  को केवल 'भावात्मक' संज्ञा के अन्तर्गत खपा देना उचित नहीं होगा। लेकिन ऐसा सरलीकरण होता आया है, और इसके लिए उनके तमाम वैचारिक निबंधों को किनारे कर के ललित निबंधों के सन्दर्भ में चर्चा 'अशोक के फूल' अथवा 'शिरीष के फूल' जैसी विशेष फ्रेम की रचनाओं पर ही केन्द्रित होती रही है। सामान्य पाठकों के मन में भी 'ललित निबंध'' सुनकर ऐसी ही रचनाओं का प्रत्यय बनता है। कुबेरनाथ राय अपने लेखन से इस धारणा को तोड़ते हैं। प्रथमतः तो वे स्वयं को मात्र ललित निबंधकार मानते हैं। और अपने व्यापक विषय-वस्तु वाले सभी निबंधों को ललित निबंध कहते हैं। इसी से पता चल जाता है कि उनके लिए एक विधा के रूप में ललित निबंध की परिधि कितनी व्यापक है। वे ललित निबंध को भी मात्र भावात्मक या व्यक्तिपरक निबंध मानने से इंकार करते हैं- "दुर्भाग्यवश ललित निबंध की एक संज्ञा व्यक्तिपरक निबंध भी है। इस संज्ञा के कारण लेखकों में यह आम धारणा फैली है कि यह वस्तुनिष्ठ रम्य रचना न होकर लेखक की आत्मकथा का टुकड़ा है और वे प्रत्येक सन्दर्भ में लेखक के यथार्थ जीवन को ढूंढ़ने की फूहड़ चेष्टा करते हैं।"2  ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि तब ललित निबंध है क्या? स्वयं लेखक की माने तो "विषय के आस-पास शिव के साँढ़ की भाँती चरण और विचरण ललित निबंध है।"3 उपर्युक्त दोनों उद्धरणों से यह बात निकलकर आती है कि ललित निबंध में वस्तुनिष्ठता होती है। किन्तु साथ ही इसमें एक विशेष प्रकार की रम्यता भी होती है। विषय के साथ रम्यता का यह संयोजन ही ललित निबंध है, लेकिन सामान्य जन इसे इस रूप में नहीं देख पाते हैं और इसकी रम्यता से ही इतने आक्रान्त हो जाते हैं कि इसमें निहित वस्तुनिष्ठता, बौद्धिकता और वैचारिकी देख ही नहीं पाते हैं। इसी बात का असन्तोष कुबेरनाथ राय को है। वे ललित निबंध की तुलना साँढ़ के चरने से करते हैं। साँढ़ चरता है तो स्वछन्द चरता है। वह कुछ भी छोड़ता नहीं है। किन्तु उसके चरने की अपनी एक गति होती है जिसमें एक स्वाभाविक मस्ती भी होती है। और इस 'चरण-विचरण' का केन्द्र भी विषय ही होता है ( विषय के आस-पास शिव के साँढ़ की भाँती....)। इस प्रकार ललित निबंध में वस्तुनिष्ठता होती है। किन्तु वह होती है निबंधकार के व्यक्तित्व की आभा के साथ, मस्ती के साथ और प्रस्तुति की रम्यता के साथ। 'अशोक के फूल', 'छितवन की छाँह', अथवा 'निषाद बाँसुरी' जैसे निबंधों को कोरी भावुकता कहकर किनारे कर देना उचित नहीं है। इन निबंधों के विषय में गाम्भीर्य है, इनके प्रतिपाद्य में औदात्य है तथा इनके पीछे प्रबल बौद्धिकता और वैचारिकी भी है। किन्तु इन सब के साथ इनकी प्रस्तुति में जो रम्यता है वह इन्हें सामान्य निबंधों से अलग करती हैं।


     ललित निबंधों को अंग्रेजी के 'पर्सनल एस्से' का भारतीय संस्करण कहा जा सकता है। अंग्रेजी साहित्य में निबंध विधा का सूत्रपात लॉर्ड बेकन ने किया। उनके निबंध गम्भीर विषयों पर केंद्रित वस्तुनिष्ठ प्रकार के हुआ करते थे। भाषा में कसावट और सूत्रात्मक उनके निबंधों की अपनी विशेषता थी जिसके कारण उनके निबंधों का रूप-रंग मोन्टेन के निबंधों से पूर्णतया भिन्न हो गया। इस प्रकार मोन्टेन के आत्मव्यंजक निबंधों से भिन्न प्रकार के विचार प्रधान, वस्तुनिष्ठ निबंध अस्तित्व में आए।


       अंग्रेजी साहित्य में रोमांटिक आन्दोलन के आगमन के साथ विलियम वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज ने जब कविता में वैयक्तिक अनुभूतियों को महत्व प्रदान किया तब अंग्रेजी निबंध का भी एक नया ही रूप सामने आया। चार्ल्स लैम्ब आदि ने जो नए प्रकार के निबंध लिखे उनका स्वर वैयक्तिक था। इन निबंधों का स्वर लॉर्ड बेकन की अपेक्षा मोन्टेन  के अधिक निकट था। फलतः वस्तुनिष्ठ-वैचारिक निबंध से इन्हें अलगाने के लिए इन्हें 'पर्सनल एस्से' की संज्ञा दे दी गई। इस प्रकार अंग्रेजी में मोटे तौर पर निबंध के दो रूप सामने आए, वस्तु व्यंजक निबंध और व्यक्ति व्यंजक निबंध। 


          कालान्तर में जब निबंध हिन्दी साहित्य में आया तो यहाँ भी समय के साथ इसके दो रूप सामने आए। पहला रूप तो अंग्रेजी के समान ही वस्तुव्यंजक वैचारिक निबंधों का था- बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी और सबसे बढ़कर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध इसी प्रकार के हैं। किन्तु दूसरा रूप अंग्रेजी के  आत्मव्यंजक निबंध या 'पर्सनल एस्से' से प्रभावित होकर भी भारतीय परंपरा की स्वाभाविक निर्वैयक्तिकता के रंग में रंगकर पूर्णतः आत्मव्यंजक नहीं हो सका। दूसरी तरफ हिन्दी निबंध के इन दोनों ही रूपों को संस्कृत निबंध परंपरा से विचार-विमर्श का संस्कार विरासत में मिला था। इस संस्कार ने भी हिन्दी निबंध के इस दूसरे रूप को विषयीनिष्ठ होते हुए भी अंग्रेजी के 'पर्सनल एस्से' के समान नितान्त वैयक्तिक नहीं होने दिया। हिन्दी के इन विषयीनिष्ठ निबंधों में निबंधकार का वैयक्तिक स्वर पहचाना जा सकता है, उसके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति को सरलता से रेखांकित किया जा सकता है। किन्तु इन निबंधों के विषय का दायरा केवल निबंधकार नहीं होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन निबंध की शैली तो 'मैं' की होती है, लेकिन बात केवल 'मैं' की नहीं होती। इनमें 'अहं' और 'इदम्' का सुन्दर समन्वय होता है।


        इस प्रकार आधुनिक व्यक्तिवाद और पारंपरिक निर्वैयक्तिकता के बीच के तनाव से निबंध लेखन की जिस शैली का विकास हुआ वही ललित निबंध है। हिन्दी में वैसे तो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, चन्द्रधर, सरदार पूर्णसिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि के निबंधों को ललित निबंध के रूप में देखा जाता है। लेकिन ललित निबंध को उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करने का श्रेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय को ही जाता है।

 

कुबेरनाथ राय के रचनाकर्म में ललित निबंध लेखन का आरम्भ कुछ देर से हुआ। लेकिन जब आरम्भ हुआ तब परिवर्तन की नवीन सामग्री के साथ हुआ। उनके निबंध के शिल्पगत प्रयोगों ने ललित निबंधों की चली आ रही परंपरा में नवीन परिवर्तन उपस्थित किया। इससे एक विधा के रूप में ललित निबंध की परिधि का विस्तार हुआ। वास्तव में उनके निबंधों में भिन्न-भिन्न विधाओं के  तत्त्व प्रायः ही प्राप्त होते हैं। विधाओं के इस समिश्रण से ललित निबंधों में जो स्वरूपगत परिवर्तन आया है उससे एक विधा के रूप में ललित निबंध की श्रीवृद्धि हुई है। यहाँ हम उनके निबंधों में शिल्पगत प्रयोगों पर एक दृष्टि डालेंगे।


        कुबेरनाथ राय के ललित निबंधों में जिस गद्य विधा के तत्त्व सबसे अधिक मिलते हैं वह है 'कहानी'। उन्होंने बहुत से निबंध ऐसे लिखे हैं जिन्हें 'कथात्मक निबंध' कहा जा सकता है। कथात्मक निबंध को विवरणात्मक निबंध का ही एक भेद माना जाता है- विवरणात्मक निबंध के "कई रूप मिलते हैं। मुख्यतः (क) कथात्मक विवरण, (ख) जीवन चरितात्मक विवरण, (ग) घटनात्मक विवरण।"4 प्रो. जयनाथ 'नलिन' का भी मानना है कि- " कथात्मक में कालगत घटनाक्रम का वर्णन होता है- यही विवरणात्मक हुआ।"5 किन्तु यह बात जमती नहीं है। जिन निबंधों की हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं उनमें कथानक, चरित्र, संवाद, देश-काल आदि कहानी के कई तत्त्व एक साथ उपस्थित हैं। इन सभी तत्त्वों को 'विवरणात्मक' संज्ञा के भीतर खपा देना उचित नहीं है। 


      कथा के तत्त्व कुबेरनाथ राय के पहले के ललित निबंधकारों के यहाँ भी मिल जाते हैं। मसलन, द्विवेदी जी ही 'आम फिर बौरा गए हैं' में जब कृष्ण और बाणासुर के युद्ध की बात करते हैं, या 'देवदारु' में अपने गाँव के 'फचफची गायत्री' पढ़ने पण्डित की बात करते हैं तब कथानक और चरित्र की कुछ हल्की झलक मिलती है। किन्तु जिस पूर्णता के साथ ये तत्त्व कुबेरनाथ राय के निबंधों में उपस्थित होते हैं वैसा उनसे पहले के ललित निबंधकारों के यहाँ नहीं होता है। एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है- 


"धरती शान्त है; गिरिपथ-वनपथ-नदीपथ सभी निःस्पन्द हैं; कीट-पतंगों का चीं-चीं स्वर, साँढ़-भैसों की हुंकार तथा मनुज-वंश का अविराम अश्रव्य गाली-गलौज या कपटी चाटुकारिता, यह सब कुछ बन्द हो गया है।...... ऐसे में दो अनादि आत्माएँ परस्पर वार्तालाप कर रही हैं, परस्पर धीमे स्वर में, प्रेमालाप जैसी शैली में.....।

'वाणी, सरस्वती!'

'........' (कोई उत्तर नहीं)

'वाणी, मेरा कंई विकल है। लागत है मेरे माथे  में कुछ नया खिलवाड़ कर रही हो। चारो मुखों से चारो वेदों का गान करने के बाद भी लगता है कि कंठ में तुम्हारी किसी नयी भंगिमा का आवेश आ रहा है, मेरी इच्छा नये ढंग से गान रचने की हो रही है।'

'मैं थक गई हूँ। हटो, तंग मत करो। सोने दो। इंद्र-आदित्य-सोम का नाम लेते-लेते मैं ऊब गई। इन निष्कर्मा भोगियों की अब और  प्रशस्ति गाने से मैं रही। अकेले-अकेले गाओ न सृष्टि-कमल पर बैठकर। मना कौन करता है! पर मुझे तंग मत करो।"6


उपर्युक्त उद्धरण के बैकग्राउण्ड में रात्रि के प्रशान्त वातावरण का चित्रण है। फोरग्राउण्ड में विधाता और सरस्वती का प्रेमालाप दिखाया गया है। इस छोटे से अंश में देशकाल-वातावरण, कथानक, संवाद और चरित्र-चित्रण का बड़ा सटीक संयोजन उपस्थित हुआ है। इस अंश के चित्रण और संवाद की नाटकीयता  का संयोजन बहुत कुछ प्रसाद जी की कहानी 'आकाशदीप' जैसा ही है- भले ही इसमें काव्य का वह उत्कर्ष नहीं है। ऐसे में इस प्रकार के निबंधों को निबंध माना ही क्यों माने, कहानी क्यों नहीं? ये प्रश्न खड़ा होता है। प्रश्न यह भी उठता है कि कहानी और निबंध में क्या भेद है? या कब कोई रचना कहानी कहलाती है और कब निबंध या कथात्मक निबंध कहलाने लगती है? वास्तव में कहानी या "आख्यायिका और निबंध में कई बातों की समता है, इसलिए बहुत बार निबंध आख्यायिका के बहुत समीप का गद्यप्रकार प्रतीत होता है। मौटेंन ने निबंध के बारे में स्पष्ट कहा है- यह विचारों, उद्धरणों और कथाओं का समिश्रण है। निबंधों का मूल उद्देश्य कथा कहना अवश्य नहीं होता पर प्रसंगों की अवतारणा करनी पड़ती है, कथाकार के समान पात्रों की सृष्टि भी कभी-कभी आवश्यक हो जाती है। कहानी का आकार भी संक्षिप्त और सीमित होता है।....... ऐसी और भी कई बातें है, जिनसे दोनों के नितान्त नैकट्य की धारणा होती है। किन्तु यथार्थतः दोनों में अन्तर है। कथा से जो तुष्टि लोगों को होती है वह पूर्णतः भावात्मक होती है, जबकि निबंध से वैचारिक। कथा

वस्तुनिष्ठ होती है, उसमें कथाकार अपने से, अपनी कृति से तटस्थ रहता है, उसका आत्मभाव कहीं आता भी है तो पात्रों में, वर्णन में नहीं। निबंध आत्मनिष्ठ ही होता है, उससे व्यक्तित्व को किसी भी प्रकार से, अलग नहीं किया जा सकता है।"7 अतः अपनी सारी रम्यता के बाद भी, सारी कथात्मकता के साथ भी इन कथात्मक ललित निबंधों का अंत जिस वैचारिकी में होता है वही वैचारिकी इन निबंधों को विशुद्ध कहानी विधा से अलगाती है। उदाहरण के लिए 'महाकवि की तर्जनी' से ही बाद के कुछ अंश द्रष्टव्य है- 

"पर वह ब्राह्मण बड़ा ही दबंग निकला। उसकी तर्जनी उसी तरह उठी रही और वह भी निर्भय होकर बोला, अथवा यों कहें कि उसके भीतर की सरस्वती बोली- 'तो तुम भी सुन लो। यदि तुम 'इतिहास' हो तो मैं भी हूँ 'काव्य!' हम और तुम दोनों सतीर्थ हैं। पर जब तुम विवेकभ्रष्ट होते हो, राज्यलिप्सा के नाम पर हज़ार-हज़ार मुण्डपात करवाते हो, अर्थलोभ के कारण धरित्री का सारा दान, सारा घृत और मधु चाबियों से ऐंठकर ताले में बन्द कर देते हो, शुद्ध काम-लालसा को सभ्यता-संस्कृति कहकर चलाने लगते हो, तो मेरी तर्जनी बिना उठे मानती नहीं, मेरा कंठ एक क्रुद्ध श्लोक बोलने को विकल हो जाता है।"8 निबंध के इस अंश में व्यक्त आवेग की तह में प्रखर वैचारिकी है, समाज और संस्कृति को देखने की एक विशेष दृष्टि है। यही इस रचना को कहानी के तत्त्वों से युक्त होने पर भी निबंध बनाता है। इस प्रकार इन रचनाओं को न तो कथा ही कहा जा सकता है ना विवरण ही कहकर किनारे किया जा सकता है। इन्हें कथात्मक निबंध कहना ही उचित होगा।


       कथा से मिलती-जुलती जिस दूसरी विधा के तत्त्व कुबेरनाथ राय के निबंधों में प्राप्त होते हैं वह है आत्मकथ्य या एकालाप। एकालाप में आदि से अन्त तक एक ही व्यक्ति बोलता है तथा उसकी बातों से ही किसी दूसरे की उपस्थिति या अनुपस्थिति का पता चलता है। एकालाप के द्वारा किसी पात्र के मनोभावों को चित्रित करना सहज ही सम्भव हो जाता है। "जहाँ नाटक कार्यरत  चरित्र का अंकन होता है, वहाँ एकालाप कार्यरत आत्मा का। इसमें पात्र अपने और अपने परिवेश का चित्रण करता है और अन्य पात्रों से अपने सम्बन्ध का ज्ञान कराता है, जिस नाटकीय स्थिति में वह रहता है, उसे स्पष्ट करता है और अपने आंदोलित मनोभावों को प्रकट करता है।[9.] कुबेरनाथ राय ने अपने कई ललित निबंधों को एकालाप के रूप में लिखा है। इस शैली के निबंधों को उत्तम पुरुष में लिखा गया है। 'रस आखेटक' में इस शैली के तीन निबंध संग्रहित हैं- (क.) होमर: आत्मकथ्य, (ख.) सिंहद्वार का कवि-प्रेत और  (ग.) 'कवि प्रेत ने कहा'। पहला निबंध होमर का आत्मकथ्य है, दूसरा वर्जिल का तथा अन्तिम में शेक्सपियर का आत्मकथ्य है। इन निबंधों में आवेग शैली की प्रधानता है। अतः वाक्य छोटे-छोटे होते है और आवेगयुक्त होने के कारण पाठक के हृदय को सहज ही अपने आकर्षण में बाँध लेते हैं।-

"मैं बड़ी हुई। सभी मुझे प्यार से राजहंसी- 'पिनीलोपी'- कहने लगे अन्यथा मेरा नाम था 'अर्नाइया'। मेरी चचेरी बहन हेलन के तुलना में मेरे सौन्दर्य की उतनी विशेष चर्चा नहीं हुई। पर मैं भी स्वयंवरा हुई और पग-दौड़ की शर्त मेरे वरण के लिए रखी गई। स्वयंवरा थी पर वरण का आधार प्रतियोगिता थी पग-दौड़ की। हमारे हिरोइक युग का आदर्श ही यही है। हम वीरभोग्या होती हैं। हमारे हृदय और किसी और के रूमान का कोई अर्थ ही नहीं होता है।" 10 जिस प्रकार नाटकों में एकालाप के माध्यम से नाटककार नाटक के किसी पात्र के गूढ़ रहस्यों का, हृदय की गुप्त भावनाओं का उद्घाटन करता है, वैसा ही इन निबंधों में भी किया गया है। इन निबंधों में एकालाप के माध्यम से ही निबंधकार पाठकों के समक्ष देश-काल-वातावरण का चित्रण करता चलता है तथा उनपर टीका-टिप्पणी भी करता चलता है। मूल ऐतिहासिक-पौराणिक चरित्र का कथन होने के कारण इन निबंधों कथन बड़ा प्रामाणिक भी लगता है तथा चरित्र का संस्पर्श हो जाने से इनमें विशेष मार्मिकता भी आ जाती है।


         लेखन कला के प्रराम्भ से ही पत्रों का व्यवहार चला आ रहा है। भाषा के मौखिक रूप में हमारी अभिव्यक्ति देश-काल की परिधि में बद्ध थी। लेखन ने उसे इस परिधि का अतिक्रमण करने की शक्ति दी। पत्रों ने हमें यह छूट दी की देश-काल की सीमा का अतिक्रमण करते हुए भी हम अपनी अपनी बातचीत को पूरी गोपनीयता के साथ जिस विशेष व्यक्ति तक चाहें पहुँचा सकें। चूँकि पत्र दो लोगों के बीच की ऐसी अनौपचारिक बातचीत है जिसका स्वर नितान्त व्यक्तिगत होता है। इसलिए सामान्यतः इसका कोई साहित्यिक मूल्य नहीं होता है। किन्तु पश्चिमी समालोचना के केन्द्र में कलाकर के आने पर पत्रों का महत्व बढ़ गया। किसी कलाकृति को समझने के लिए कलाकार का जीवन, उसकी विचारधारा तथा उसके समय और समाज को समझना जरूरी हुआ तो कलाकार से जुड़ी व्यक्तिगत बातें भी महत्वपूर्ण हो गईं। इस प्रकार पत्र साहित्य का विकास हुआ।


     कुबेरनाथ राय के बहुत से ललित निबंध पत्राचार की शैली में  लिखे गए हैं। ये निबंध शैली की दृष्टि से बालमुकुंद गुप्त द्वारा 'शिवशम्भु के चिट्ठे' नाम से लिखित निबंधों की परंपरा में आते हैं। किन्तु दोनों निबंधकारों की रचनाओं के स्वर में भिन्नता है। कुबेरनाथ राय द्वारा पत्र शैली में लिखे गए निबंधों का एक पूरा संग्रह है 'पत्र मणिपुत्तुल के नाम'। इन निबंधों में गाँधीवादी रसदृष्टि और शीलदृष्टि का निरूपण किया गया है। हालाँकि ये निबंध पत्राचार की शैली में जरूर लिखे गए हैं, लेकिन इन्हें वास्तविक पत्राचार नहीं माना जा सकता। वास्तविक पत्राचार के लिए पत्र पाने वाले का वास्तविक होना एक जरुरी शर्त है, जबकि इन निबंधों में ऐसा नहीं है। इन निबंधों में सम्बोधित व्यक्ति बातों को रखने का बहाना मात्र होता है। 'उत्तराफाल्गुनी के नाम' जैसे कुछ पत्र शैली के निबंध तो अमूर्त सत्ताओं को सम्बोधित करते हुए लिखे गए हैं। वास्तव में इन निबंधों में पत्र को एक लेखन के एक तकनीक के रूप में लिया गया है। यूरोपीय उपन्यास-लेखन में Epistolary उपन्यास शैली प्रचलित है। इसमें वर्णन आदि के साथ ही दस्तावेजों के माध्यम से कथा को आगे बढ़ाया जाता है। इस शैली में सर्वाधिक लोकप्रिय दस्तावेज पत्र ही है। इन निबंधों में भी जाने-अन्जाने इसी तकनीक का प्रयोग हुआ है। अन्तर इतना ही है कि उपन्यास के पत्र को लिखने और पढ़ने वाले दोनों ही काल्पनिक पात्र होते हैं, जबकि निबंध में लिखने वाला तो लेखक ही होता है, लेकिन पढ़ने वाला व्यक्ति प्रतीक मात्र या पूर्णतः काल्पनिक भी हो सकता है। 'उत्तराफाल्गुनी के नाम' इस दृष्टि से बड़ा सुन्दर निबंध है-

  "प्रिय उत्तराफाल्गुनी!

           तुम्हें पत्र लिखने की तबियत बहुत दिनों से हो रही थी, परन्तु इच्छा रह-रहकर बुझ जाती थी। कलेजे में माघ-माघ छाया रहता है और कहीं से कोई ताज़ी गर्म नसीब नहीं। वैसे भी तुम्हारे नाम की ऊष्मा के सिवा और कोई किरण कब मुझे नसीब हुई। आखीर लिखूँ भी तो क्या लिखूँ.....।11


भावना का बड़ा सुन्दर प्रवाह बन पड़ा है इस निबंध में। भाषा भी काव्यात्मक हो चली है। निबंध में जहाँ पत्र के अनुकूल ही स्वछन्दता है वहीं निबंध में जो मर्यादा होनी चाहिए वह भी है। इस निबंध की एक और विशेषता यह है कि स्वयं लेखक ने इसे गद्य-पद्य मिश्रित चम्पू शैली में लिखित माना है। "इसे पाठक संस्कृत की 'चम्पू' (गद्य-पद्य मिश्रित) शैली के अनुरूप मान सकते हैं।"12 निबंध का कुछ पद्यांश द्रष्टव्य है-


"मेरी शिखर-वासिनी प्रिया

 मेरी प्रिय 'असमिया' छोकरी

 तुम उतरो बनकर, एक पुलक, एक आलोक

 तुम उतरो बनकर, एक स्वाद, एक मधु, एक गान

 बनकर उतरो वनपाँखी, पुरोहित का कण्ठ-स्वर

 निर्मल प्रसन्न प्रात और आशीर्वाद!...."13


" 'फैन्टेसी' शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द 'फैंटेसिया' से हुई है, जिसका अर्थ है अवास्तव या अमूर्त को दृश्य बनाना।.... फैन्टेसी की क्रियाशीलता में ऐसे वातावरण या चरित्र उपस्थित होते हैं जो मनुष्य जीवन की सामान्य परिस्थितियों में असंभव माने जाते हैं..... फैन्टेसी में भौतिक शास्त्र के नियमों की सीमा टूट जाती है, पशु या मानव जीवन का अंतर मिट जाता है, मनुष्य स्वभाव की आधारशिला डगमगा जाती है और काल्पनिक जीव समस्त मूल्यों को अव्यवस्थित कर देते हैं....।"14 वास्तव में यह एक विशेष प्रकार का कल्पनाचित्र या स्वप्नचित्र होता है जिसका आधार प्रायः बाह्य जगत का यथार्थ या पारंपरिक मिथक और दंतकथाएं होती हैं। एक सृजनशील रचनाकार इसका प्रयोग एक रचनात्मक तकनीक के रूप में अपनी रचना प्रक्रिया में करता है। हिन्दी में इसका सर्वाधिक प्रयोग मुक्तिबोध ने किया है। उनका इसके विषय में मानना है कि "फैन्टेसी के अंतर्गत पात्र, चरित्र, घटनाएँ आदि लेखक के संवेदनात्मक उद्देश्यों द्वारा उपस्थित और परिचालित दिखाई देते हैं।"15 कोई रचना पूर्णतः या अंशतः फैन्टेसी हो सकती है। यह पूरी तरह से रचनाकार के रचनात्मक उद्देश्यों पर निर्भर करता है। 


      कुबेरनाथ राय के कई निबंध ऐसे हैं जिनमें स्वप्नचित्रों या फैन्टेसी का सहारा लिया गया है।- "अचानक दृश्य पट बदलता-सा ज्ञात हुआ और मुझे लगा कि मैं अचानक किसी अदृश्य भोज-विद्या के वश में पड़ कर दूसरे देश-काल में प्रवेश कर रहा हूँ। मैं अचानक पहुँच गया प्रेत-नदी फल्गु के उदास तट पर और मैंने देखा कि अस्थि-वीणा पर एक अर्धनग्न पुरुष अपने आसन पर बैठा हुआ एक चर्या का गान कर रहा है, और पास ही में सम्भवतः कोई इषुकार कन्या शरकण्डों को क्षुरिक से परिष्कृत कर रही है।...... मुझे लगा कि कोई दूर-दूर..... 10वीं शती के तप्त आकाश में नरम पंखों को पसारे एक जीव-कपोत विचरण कर है, वह दूर अति दूर, ऊपर सम्पाती की कक्षा पर चढ़ता चला जा रहा है.....वह जीव कपोत मैं ही था...। अचानक उस सिद्ध पुरुष की अस्थि-वीणा थम गयी जो हड्डियों पर भैंसे के चमड़े का तार कर बनाई गयी थी, पर जिसका स्वर अद्भुत था, और वह अपूर्व रागिनी को जन्म दे रही थी। उस सिद्ध पुरुष ने मेरी ओर देख कर कहा: 'तुमने मुझ पर ललित निबंध लिख कर अन्याय किया है।'..."16 इस प्रकार के और भी बहुत से उदाहरण हैं…. बहुत से निबंध हैं जिनमें अयथार्थवादी दृश्यों, असामान्य परिस्थितियों, बिखरे हुए स्वप्न चित्र, काल्पनिक जीवों, मिथकीय पुरुषों, देवी-देवताओं आदि से युक्त असाधारण वातावरण की सृष्टि लेखक ने अपने रचनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की है। 


      इस प्रकार न केवल कथा-कहानी, एकालाप, पत्र या फैन्टेसी के ही तत्त्व बल्कि रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, यात्रा वृतांत आदि अन्यान्य विधाओं के तत्त्व भी कुबेरनाथ राय के निबंधों में देखे जा सकते हैं। कथात्मक निबंधों की संवाद-योजना में नाटकीयता भी देखी जा सकती है। वास्तव में जिस समय निबंध विधा का जन्म हुआ था उस समय तक कई आधुनिक गद्य विधाएँ अस्तित्व में आई ही नहीं थी। रेखाचित्र, संस्मरण आदि ऐसी ही विधाएँ हैं। इन सभी विधाओं के बीज निबंध में मिल जाते हैं..... निबंध इन सभी विधाओं का उत्स है। अतः आज यदि किसी के निबंध में इन विधाओं के तत्त्व दृष्टिगत हो तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। बल्कि यह निबंध का स्वाभाविक रूप है। निबंध लेखक को रचनाधर्मिता की जो स्वतन्त्रता प्रदान करता है, उसके सामने जो व्यापक विकल्प प्रस्तुत करता है उसी से इसे गद्य की कसौटी कहा जाता है। हिन्दी निबंध में इस स्वतन्त्रता का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा था। लेखक वार्ता, विवरण या विवेचन का ही रास्ता अधिक पसन्द कर रहे थे। ऐसे में निबंध का 'रूप' बहुत कुछ एकरस हो गया था। जिसके कारण 'कथ्य' भी एक निश्चित परिधि के भीतर ही अवरुद्ध होकर रह गया था। अपने निबंधों के शिल्पगत प्रयोगों से कुबेरनाथ राय ने ललित निबंध में नवीन रूपगत परिवर्तन उपस्थित किया जिसके फलस्वरूप ललित निबंध के कथ्य की परिधि में भी विस्तार हुआ। अन्ततः इससे एक विधा के रूप में ललित निबंध की श्रीवृद्धि हुई। कुबेरनाथ राय ने निबंध विधा की स्वतन्त्रता का पूरा उपयोग किया, लगभग सभी शैलियों में हाथ चलाया। इस क्रम में उन्होंने कुछ नवीन शैलियाँ विकसित की तो कुछ पुरानी, विस्तृत शैलियों का पुनरोद्धार भी किया। इस दृष्टि से उनके निबंध बाद के ललित निबंधकारों के लिए बड़े काम के हैं। अपने निबंधों में भिन्न-भिन्न विधाओं का मेल कराके उन्होंने हिन्दी ललित निबंध को न केवल एक बँधे-बँधाए फ्रेम से मुक्ति दी बल्कि उसे निबंध के मूल रूप अर्थात् मोन्टेन के निबंधों के निकट पहुँचा दिया। वह भी ललित निबंध के अपने व्यक्तित्व और उसके भारतीय रंग की रक्षा करते हुए।



सन्दर्भ-


  1. Eliot T.S. (1921), Tradition and the Individual Talent, Alfred A. Knof, New York, पृष्ठ सं 45

  2. राय कुबेरनाथ (1984), दृष्टि-अभिसार, अपनी बात, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. VII

  3. वही, पृष्ठ सं. V

  4. तिवारी रामचन्द्र (1955), हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन, गोरखपुर, पृष्ठ सं 65

  5. नलिन जयनाथ (1954), हिन्दी निबंधकार-, आत्माराम एण्ड सन्स, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 17

  6. राय कुबेरनाथ (1973), महाकवि की तर्जनी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 1

  7. हिन्दी साहित्य का बृहत् इतिहास, 13वाँ भाग, प्रधान संपादक- डॉ. संपूर्णानंद, संस्करण- 2038, पृष्ठ सं. 50

  8. राय कुबेरनाथ (1973), महाकवि की तर्जनी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 7

  9. हिन्दी साहित्य कोश- सं० धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण- संवत 2020,  पृष्ठ सं. 192

  10. राय कुबेरनाथ (2013), प्रिया नीलकण्ठी, एक ग्रीक प्रोषितपतिका का आत्मकथ्य, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 108-09

  11. राय कुबेरनाथ (1993), मराल, उत्तराफाल्गुनी के नाम, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 13

  12. वही, पृष्ठ सं. 13

  13. वही, पृष्ठ सं. 19

  14. डॉ. अमरनाथ (2016), हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 245-46

  15. मुक्तिबोध (2018), कामायनी: एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ सं.13

  16. राय कुबेरनाथ (1983), किरात नदी में चन्द्रमधु, गेंडा और चन्द्रमधु, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, पृष्ठ सं. 10-11


(मुम्बई विश्वविद्यालय की पत्रिका शोधावरी के जनवरी-मार्च 2021, कुबेरनाथ राय विशेषांक में प्रकाशित शोध पत्र)

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