हिन्दी सिनेमा के गीत और पारसी रंगमंच
('अपनी माटी' पत्रिका के अंक 43 में प्रकाशित शोध आलेख)
शोध सार: इस शोधपत्र में यह बताने का प्रयास किया गया है कि भारतीय फ़िल्मों की प्रकृति पाश्चात्य फ़िल्मों से भिन्न है। भारतीय फ़िल्मों का अपना सौन्दर्यशास्त्र है, अपना रचनात्मक व्याकरण है। प्रायः भारतीय फ़िल्मों का मूल्यांकन पाश्चात्य फ़िल्मों को मानक बनाकर किया जाता है तथा इनमें नृत्य, गीत-संगीत आदि देखकर इन्हें म्यूज़िकल या ऑपेरा करार दे दिया जाता है। यह स्थिति भ्रामक और दोषपूर्ण है क्योंकि ऐसे मूल्यांकन में भारतीय फ़िल्मों की प्रकृति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता। कोई भी रचना अपने रचनात्मक तन्त्र की उपज होती है। रचनात्मक तन्त्र की प्रकृति के अनुरूप ही रचना की प्रकृति होती है। सिनेमा एक आधुनिक दृश्य-श्रव्य कला माध्यम है। उसके पहले रंगमंच था। सिनेमा पर भी अपने पूर्ववर्ती, रंगमंच का प्रभाव पड़ा है। अतः इस शोधपत्र में भारतीय दृश्य-श्रव्य कला माध्यम की पूरी परम्परा पर दृष्टि डाली गई है ताकि इसके रचनात्मक तन्त्र की प्रकृति को समझा जा सके। और यह दिखाया गया है कि भारतीय दृश्य-श्रव्य कला की पूरी परम्परा में आरम्भ से ही संगीत की प्रधानता रही है। अर्थात इसका रचनात्मक तन्त्र ही संगीतमय है। इसके अतिरिक्त इस शोधपत्र में यह प्रतिपादित किया गया है कि हिन्दी सिनेमा के गीत पारसी रंगमंच की देन हैं।
बीज शब्द: भारतीय सिनेमा, पश्चिमी सिनेमा, कला-दृष्टि, रचनात्मक तन्त्र, रंगमंच, रंग परम्परा, रंग युक्ति, पारसी रंगमंच, नाट्य, मूक फ़िल्म, सवाक् फ़िल्म, म्यूज़िकल फ़िल्म, फ़िल्मी गीत, आलमआरा, द जैज़ सिंगर, द मेलोडी ऑफ़ लव।
मूल आलेख: भारतीय संस्कृति में गीतों का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय संस्कृति में वेद सर्वोपरि माने जाते हैं, लेकिन चारों वेदों में भी अपनी गीतात्मकता के कारण सामवेद श्रेष्ठ माना गया है। गीता के दसवें अध्याय के बाइसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि…’ मैं वेदों में सामवेद हूँ। इसी प्रकार भारत का पहला महाकाव्य रामायण अनुष्टुप छन्द में लिखा है जिसमें आठ-आठ वर्णों वाले चार पद होते हैं। अनुष्टुप को वीणा पर गाया जा सकता है। प्राचीन काल में कुशीलवों की परम्परा होती थी जो रामायण का गान किया करती थी। मध्यकाल में देखें तो जयदेव और विद्यापति के पदों के गाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। भक्तिकाल के काबीर, सूर और तुलसी जैसे भक्त कवियों की कविताएँ जन-जन द्वारा गायी गई हैं। सामान्य कविताओं के अतिरिक्त इन कवियों ने गेय पदों की भी रचना की है। ये पद शास्त्रीय रागों में निबद्ध कर गए जाते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत प्रकृति से जुड़ा हुआ है। इसमें हर समय, हर ऋतु का अपना राग है। शास्त्रीय संगीत को छोड़ दे तो भी यहाँ लोकगीतों की एक बहुत ही समृद्ध परम्परा है। इस परम्परा में संस्कारों से जुड़े गीत हैं, पर्व-त्योहारों से जुड़े गीत हैं, वर्षा आदि ऋतुओं से जुड़े गीत हैं, खेती और घर-गृहस्थी से जुड़े गीत हैं। कुलमिलाकर कहें तो पारम्परिक भारतीय जीवन ही गीतमय है। जन्म से लेकर मृत्य पर्यन्त भारतीय जीवन का प्रत्येक चरण गीतों से जुड़ा हुआ है। अब पारम्परिक जीवन शैली प्रायः लुप्त हो चुकी है। कजरी, चैता, फगुआ आदि लोकगीतों को गाने वाले कण्ठ मौन हो गए हैं, लेकिन सिनेमा के गीतों में अभी भी भारत के संगीतप्रेम को लक्षित किया जा सकता है।
विश्व के सभी फ़िल्म उद्योगों के बीच भारतीय फ़िल्म उद्योग का अपना विशिष्ट स्थान है। इसके कई कारण है, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण कारण जो इसे विश्व सिनेमा से एकदम अलग बनाता है वह है संगीत। ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य सिनेमा में संगीत का अभाव है। वहाँ भी संगीत का प्रयोग सिनेमा के प्रभाव को सघन करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण साधन के रूप में होता है, लेकिन यह प्रयोग प्रायः पार्श्व संगीत (बैकग्राउण्ड म्यूज़िक) तक सीमित रहता है। म्यूज़िकल फ़िल्मों में नृत्य और गीत का समावेश किया जाता है, लेकिन ये फ़िल्में सामान्य फ़िल्मों से अलग, एक विशेष कोटि में आती है तथा पश्चिमी सिनेमा के व्यापक पटल पर इन्हें बहुत गौण स्थान प्राप्त है। इसके विपरीत संगीत और नृत्य के अभाव में भारतीय सिनेमा की कल्पना कठिन है। संगीत पर इसी निर्भरता के कारण प्रायः पश्चिमी सिनेमा समीक्षक भारतीय फिल्मों को विशुद्ध सिनेमा के रूप में स्वीकार ही नहीं करते हैं। भारतीय सिनेमा का मूल्यांकन करते समय मूल्यांकन का उनका मानक पश्चिमी सिनेमा ही होता है। भारतीय सिनेमा के आधार पर पश्चिम के सिनेमा का अथवा पश्चिम के सिनेमा के आधार पर भारतीय सिनेमा के मूल्यांकन का परिणाम हमेशा भ्रामक होगा क्योंकि दोनों ही क्षेत्रों के सिनेमा की प्रकृति एक दूसरे से भिन्न है और इस भिन्नता की तह में इन दोनों क्षेत्रों की रंग परम्परा है। पाश्चात्य रंग परम्परा आरम्भ से ही यथार्थ के निकट रही है। एकदम आरम्भ में ही उसमें दिक्, काल और क्रिया की एकता का सिद्धान्त प्रतिपादित कर दिया गया था। इस सिद्धान्त के पीछे यही यथार्थ दृष्टि थी। जबकि “भारतीय नाट्य-सिद्धान्त में अभिनय न तो अनुकरण करता है, न उत्पत्ति, उसका उद्देश्य है व्यंजना के माध्यम से रस की अनुभूति देना।” 1. इस प्रकार जहाँ पाश्चात्य रंग परम्परा यथार्थवादी रही है, वहीं भारतीय रंग परम्परा व्यंजनावादी।
सिनेमा एक प्रकार से रंगमंच का ही अद्यतन रूप है। सिनेमा के पहले वही एकमात्र कलारूप (आर्टफॉर्म) था जो कि दृश्य-श्रव्य था। “सिनेमा के आविष्कार के बाद के आरम्भिक वर्षों में सिनेमा भी रंगमंच की प्रथा का अनुकरण करता रहा… सिनेमा जब दृश्य कला से कथा कला में तब्दील हो रहा था, तो निर्देशकों ने महसूस किया कि सिनेमा का सौंदर्यशास्त्र रंगमंच की तरह ही है। रंगमंचीय गति, अभिनय, कथा, नाटक और रंगमंचीय सन्दर्भ की तरह ही पहली कथा फिल्मों पर प्रभावी रहे… 1899 में जब पहली बार कथा प्रधान फिल्म बनाने के बारे में सोचा गया तब मशहूर नाटक सिंड्रेला को इसके लिए चुना गया।” 2. भारतीय सिनेमा की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। आरम्भिक काल की फ़िल्मों ने अच्छे से रंगमंच का सहारा लिया था। स्वयं दादा साहब फाल्के फ़िल्म के लिए द्रष्टव्य गुण से युक्त नाटक के आधार को अनिवार्य मानते थे। उनकी बनाई पहली फ़ीचर फ़िल्म राजा हरिश्चन्द्र, जो कि भारतीय सिनेमा की भी पहली फ़िल्म है, वास्तव में उसी विषय के एक नाटक से प्रेरित होकर बनाई गई थी। वे पहले भगवान कृष्ण की लीलाओं को फ़िल्म के रूप में दिखाना चाहते थे, पर “अपने अनुभव से वे जान चुके थे कि कृष्ण के जीवन पर पहली फ़िल्म बनाना व्यवहारिक नहीं है… राजा हरिश्चन्द्र विषय पर एक नाटक बम्बई में हिट जा रहा था। यही निश्चय हुआ कि राजा हरिश्चन्द्र पर फ़िल्म बनायी जाये।”3. सिनेमा और नाटक का सम्बन्ध इस तरह का है कि आरम्भ में सिनेमा को पर्दे पर चलने वाला नाटक ही समझा जाता था। मुम्बई और पुणे से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘ज्ञानप्रकाश’ में 7 जुलाई 1931 को फ़िल्म ‘आलमआरा’ को ‘नाटक सिनेमा – सिनेमा नाटक’ कहकर प्रचारित किया गया था।
भारत में सिनेमा के आगमन से ठीक पूर्व पारसी रंगमंच का दबदबा था। हिन्दी सिनेमा को अपने प्रारम्भिक कलाकार पारसी रंगमंच से ही मिले- “The Parsi theater groups provided the initial pool of performers and writers as nearly all of them switched to film.” 4. मूक सिनेमा के बाद सवाक् सिनेमा के दौर में यह प्रक्रिया और तेज हो गई क्योंकि सिनेमा में ध्वनि के आने के बाद ऐसे कलाकारों की आवश्यकता पड़ी जो स्पष्ट और प्रभावी संवाद बोल सकें, गीत गा सकें तथा आवश्यक होने पर नृत्य भी कर सकें। चूँकि पारसी रंगमंच तब एकमात्र पेशेवर रंगमंच था जहाँ बड़ी संख्या में इन विशेषताओं से युक्त कुशल अभिनेता तथा उनके साथ ही अच्छे लेखक और निर्देशक उपलब्ध थे, अतः सिनेमा को यह कुशल कलाकारों के स्रोत के रूप में मिला। हिन्दी सिनेमा पर पारसी रंगमंच के प्रभाव को हम बड़ी सरलता से प्रारम्भिक फ़िल्मों पर एक दृष्टि डालकर समझ सकते हैं। प्रारम्भ में पौराणिक कथानकों पर आधारित फ़िल्में बनाई गईं। ये फ़िल्में उसी विषय पर आधारित पौराणिक नाटकों पर आधारित होती थी। पारसी नाटक की लोकप्रियता का आधार यही पौराणिक नाटक थे। इस सन्दर्भ में डॉ० बच्चन सिंह ठीक ही कहते हैं कि “इन कंपनियों ने खूब धन कमाया और नाटक के प्रति लोगों का रुझान भी पैदा किया। पर जनजीवन से इनका सम्पर्क तब स्थापित हुआ जब इनके मंच पर पौराणिक धार्मिक नाटक खेले जाने लगे।” 5. इस दृष्टि से देखें तो भारतीय सिनेमा का पहला लोकप्रिय जॉनर पौराणिक फ़िल्मों का है जो कि पारसी नाटकों का ही प्रभाव है। बाद में तीस के दशक में नाटकों का फ़िल्म रूपान्तरण होने लगा। सबसे पहले 1931 में दिले जिगर नामक नाटक का फ़िल्म रूपान्तरण हुआ। इसके बाद तो प्रायः सभी प्रसिद्ध पारसी नाटकों (‘यहूदी की लड़की’ आदि) का फ़िल्म रूपान्तरण हुआ। इसके अतिरिक्त प्रायः सभी महत्वपूर्ण पारसी नाटककारों ने फ़िल्मी पटकथाएँ लिखी। इसी का प्रभाव है कि एक लम्बे समय तक हिन्दी सिनेमा की भाषा ना ठेठ हिन्दी, ना खालिस उर्दू बल्कि दोनों के मेल से बनी हिन्दुस्तानी बनी रही। इस प्रकार पारसी रंगमंच ने न केवल अपने कलाकार (अभिनेता-लेखक) बल्कि अपना सौन्दर्यशास्त्र भी सिनेमा को दिया। अब इस सौन्दर्यशास्त्र का प्रभाव हिन्दी सिनेमा से काफी कुछ समाप्त हो चुका है, लेकिन गीत, जो कि सिनेमा को पारसी रंगमंच की ही देन हैं, उनका प्रचलन अब भी है।
ऐसे तो भारतीय रंगमंच में आरम्भ से ही नृत्य-संगीत की उपस्थिति रही है। अभिनय में नृत्य-संगीत के योग की कथा ‘नाट्यशास्त्र’ में बताई गई है। इस कथा के अनुसार ब्रह्मा के कहने पर भरतमुनि ने भगवान शिव के सम्मुख ‘अमृतमन्थन’ समवकार तथा ‘त्रिपुरदाह’ नामक डिम रूपक का प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में नृत्य-संगीत का अभाव देखकर शिव ने भरतमुनि को शुद्ध पूर्वरंग में अंगहारों से युक्त नृत्य तथा वर्धमानक, आसारित, गीत और महागीत को जोड़ने की आज्ञा दी। नृत्य-संगीत के योग के बाद शुद्ध पूर्वरंग ‘चित्र पूर्वरंग’ कहा जाने लगा।
“मयापिदं समृतं नृत्यं सन्ध्याकालेषु नृत्यता।
नानकरणसंयुक्तैरंगहारैविभूषिताम् ।।13।।
पूर्वरंगविधावस्मिन् त्वया सम्यक्प्रयोभ्यताम्।
वर्धमानकयोगेषु गीतेष्वासारितेषु च ।।14।।
महागीतेषु चैवार्थान् सम्यगेवाभिनेष्यसि।
यश्चायं पूर्वरंगस्तु त्वया शुद्धः प्रायोजितः ।।15।।
एभिर्विमिश्रितश्चायं चित्रो नाम भविष्यति।” 6.
इस प्रकार नृत्य-संगीत के चिह्न संस्कृत नाटकों में भी मिल जाते हैं, किन्तु यहाँ उन्हें उस प्रकार की प्रधानता नहीं मिली है जैसी कि बाद की पारम्परिक रंगशैलियों में मिली है।
भारतीय रंग परंपरा में संस्कृत के शास्त्रीय रंगमंच के अवसान के बाद पारंपरिक रंगशैलियों का उद्भव होता है। इन रंगशैलियों को एक साथ समवेत रूप से पारम्परिक रंगमंच या परम्पराशील रंगमंच कहा जाता है। इन रंगमंचों ने संस्कृत रंगमंच के शास्त्रीय तत्वों को ग्रहण किया, किन्तु साथ ही लोकोन्मुख होकर लोकरुचि को भी स्वीकार किया। यही कारण है कि तमाम अस्थिरताओं, विघ्न-व्यवधानों के बाद भी, बिना किसी राजाश्रय के भी, नाट्य की यह अन्तःसलिला धारा लोक में प्रवाहित होती रही तथा आज भी हो रही है। पारम्परिक रंगमंच की सभी शैलियों का अपना विशिष्ट है, लेकिन कुछ बातें सभी में एक समान है। प्रायः सभी रंगशैलियों का रंगकर्म प्रादेशिक भाषाओं में होता है। इन रंगशैलियों में “सृजनात्मक रचना के रूप में नाटक लगभग अनुपस्थित है।” 7. इनमें रंगकर्म पूर्वलिखित नाटकों के स्थान पर नाट्यालेखों पर आधारित होता है। ये नाट्यालेख “विभिन्न प्रबन्धों, काव्यों, मुक्तकों या दूसरे स्रोतों से प्राप्त सामग्री से प्रयोग-प्रदर्शन के लिए तैयार किए जाते थे।” 8. नाट्यलेख में कथा का ढाँचा भर होता है जिसे अभिनेता अपने अभिनय से, अपनी उद्भावना से, अपनी आशुकवित्व क्षमता या अपनी वाक्-पटुता से सजीव बनाता है। इस प्रकार पारम्परिक रंगमंच प्रदर्शन केन्द्रित रंगमंच है। ऊपर उल्लिखित विशेषताओं के अतिरिक्त पारम्परिक रंगमंच की सबसे बड़ी विशेषता जो उसे संस्कृत रंगमंच से अलग बनाती है वह है नृत्य और संगीत की प्रधानता। “संगीत और नृत्य का समावेश संस्कृत रंगमंच में भी था, पर वह अधिकांशतः पूर्वरंग तक सीमित था और नाटक के बीच में केवल आवश्यकता के अनुसार ही, निर्धारित और नियंत्रित रूप में, व्यवहार में आता था। संस्कृत नाटक में केन्द्रीय महत्त्व गद्य या पद्य संवादों का या विशेष प्रकार से पाठ्य या गेय श्लोकों का है, जबकि परवर्ती मध्यकालीन नाट्यों में या तो गद्य संवाद हैं ही नहीं, या उनका स्थान गौण है। मुख्य कथानक का सम्प्रेषण गीतों या कथानक के माध्यम से, या अभिनय अथवा अभिनयमूलक नृत्यों द्वारा होता है। वास्तव में, इन नाट्यों का तो कलेवर ही संगीत और नृत्य का है, और वे ही उनकी सम्प्रेषणीयता के और लोकप्रियता के आधार है और उन्हें एक विशिष्ट रंगशैली या रंग-संस्कृति का दर्जा देते हैं।” 9.
चूँकि पारम्परिक रंगमंच पर नाटक लेखन को अनिवार्य नहीं समझा जाता था अतः गीत-संगीत और आशुकवित्व का महत्व वहाँ स्वाभाविक रूप से बढ़ गया था। कालान्तर में पारसी नाटकों ने भी इन तत्त्वों को ग्रहण कर लिया। गीत और नृत्य जैसे मनोरंजक तत्त्वों के कारण जानता आकर्षित होती थी। अतः पारसी रंगमंच के लिखित नाटकों में भी इनका महत्व बना रहा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत में सिनेमा के पूर्ववर्ती रंगमंच की सभी शैलियों में गीतों की प्रधानता रही है। ऐसे में यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि नाट्यशास्त्र से लेकर जयशंकर प्रसाद तक के नाटकों में गीतों की योजना मिलती है तब हिन्दी फ़िल्मों के गीतों को पारसी रंगमंच का अवदान कैसे मान लिया जाए। वास्तव में गीतों को जितना महत्व पारसी रंगमंच में मिला वैसा और कहीं नहीं मिला। पारम्परिक रंगमंच में भी नहीं था। पारम्परिक रंगमंचों में भी गीत होते थे, लेकिन वहाँ उसके लिए अलग संगीत मण्डली होती थी। जबकि “पारसी नाटक की तो पहली शर्त ही यही होती थी कि अभिनेता को स्वयं गाना-नाचना आना चाहिए।” 10.
इस प्रकार भारतीय रंग परम्परा में आरम्भ से ही गीत-संगीत का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है। पारम्परिक रंगमंच में तो संगीत की स्थिति केन्द्रीय ही हो जाती है। उसका उत्तरवर्ती पारसी रंगमंच भी इस केन्द्रीयता का निर्वाह करता है। भारतीय जनता लगभग एक हजार वर्ष से रंगकर्म में संगीत का आनन्द लेती आ रही है। “एक हज़ार वर्ष के लगातार साक्षात्कार के कारण संगीत उसके प्रदर्शनमूलक संस्कार, रुचि और सौन्दर्यबोध का ऐसा अनिवार्य अंग बन गया है कि आज संगीत के बिना किसी लोकप्रिय प्रदर्शन की कल्पना भी मुश्किल हो जाती हैं कोई आश्चर्य नहीं कि इस युग के नवीनतम, यन्त्र-आधारित प्रदर्शनकारी माध्यम, फ़िल्म में भी हमारे देश में गीत-संगीत ने ऐसा अटल और अनिवार्य स्थान बना लिया है।” 11.
हिन्दी सिनेमा की प्रथम सवाक् फ़िल्म ‘आलमआरा’ है, जो कि 1931 ई० में प्रदर्शित की गई थी। जबकि पहली फ़िल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ 1913 ई० में ही प्रदर्शित की जा चुकी थी। प्रथम सवाक् फ़िल्म ‘आलमआरा’ के आने तक कुल 1288 मूक फिल्मों का निर्माण हो चुका था। सिनेमा में छवि के साथ ध्वनि को जोड़ने की तकनीक के विकसित हो जाने के बाद सिनेमा में संवाद आया। और “यह एक सुखद संयोग ही था कि पहली सवाक् फ़िल्म में ही संवादों के साथ-साथ गीतों को भी शामिल किया गया था। इस प्रकार बोलती फ़िल्मों का जन्म गानों के साथ हुआ अर्थात् फ़िल्मों ने बोलते ही गाना भी शुरू कर दिया था। इससे फ़िल्मों की खूबसूरती में चार चाँद लग गये।” 12. वास्तव में फ़िल्म निर्माता पारसी नाटकों के गीतों की लोकप्रियता से परिचित थे। “दर्शकों को बाँधे रखने के लिए पारसी नाटककारों ने गीत-संगीत का विधान किया था।” 13. दर्शकों को रंगमंच के गीतों का आनन्द लेने का चस्का लगा हुआ था। अब चूँकि रंगमंच पर गीतों का आनन्द लेने वाले यही लोग फ़िल्मों के भी दर्शक थे। अतः यह स्वाभाविक ही था कि सवाक् फ़िल्मों में संवाद के साथ गीतों को शामिल कर लिया जाता। और ऐसा ही हुआ भी।
ऐसा नहीं है कि सवाक् फ़िल्मों के पहले, मूक फ़िल्मों के युग में संगीत का अभाव था। “भारतीय फिल्मों में गीत-संगीत का प्रभाव मूक फिल्मों के दौर से ही शुरू हो गया था। मूक फिल्मों के प्रदर्शन के समय संगीतकारों का दल अपने वाद्य यंत्रों सहित सिनेमा हॉल के स्टेज पर उपस्थित रहकर फिल्म की स्थिति व घटनाओं के अनुरूप गीत-संगीत प्रस्तुत करता था। इससे दर्शकों को दृश्य के साथ संगीत का आनन्द भी मिल जाता था और फ़िल्म के मनोरंजन तत्व में वृद्धि भी हो जाती थी।” 14. कालान्तर में जब फ़िल्म में दृश्य के साथ ध्वनि को अंकित करने की तकनीक विकसित हो गई तब अलग से संगीतकारों को अलग से बैठाने की आवश्यकता समाप्त हो गई। इस तकनीक के विकास के बाद वॉर्नर ब्रदर्स के द्वारा विश्व की पहली सवाक् फ़िल्म ‘द जैज़ सिंगर’ का निर्माण किया गया। इस फ़िल्म का निर्देशन ऐलेन क्रॉसलैण्ड ने किया था तथा इसे 1927 ई० में प्रदर्शित किया गया था। हालाँकि इस फ़िल्म में ध्वनि का प्रयोग सीमित था, अर्थात् यह पूर्णतः बोलती फ़िल्म नहीं थी, लेकिन इस फ़िल्म की सफलता ने मूक फ़िल्मों के युग का अन्त कर दिया। इस फ़िल्म के बाद जो पूर्णतः सवाक् फ़िल्म आई वह भी वॉर्नर ब्रदर्स द्वारा निर्मित थी जिसका नाम ‘लाइट ऑफ़ न्यूयॉर्क’ था। बहुत सी दूसरी सवाक् फ़िल्में भी सामने आईं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है ‘द मेलोडी ऑफ़ लव’। यूनिवर्सल पिक्चर्स द्वारा निर्मित और आर्च हीथ द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म का प्रदर्शन सन् 1928 ई० में किया गया था। यह एक म्यूज़िकल फ़िल्म थी अर्थात् इसमें सामान्य हॉलीवुड की फ़िल्मों से अलग नृत्य-संगीत की विशेष उपस्थिति थी। इस फ़िल्म ने भारतीय फ़िल्म निर्माताओं को सवाक् फ़िल्म निर्माण के लिए प्रेरित किया। चूँकि हॉलीवुड की आरम्भिक सवाक् फ़िल्मों में से अधिकांश फ़िल्में म्यूज़िकल थी। अतः नृत्य-संगीत से युक्त इन फ़िल्मों ने हिन्दी फ़िल्मों में गीतों के योग के लिए उत्प्रेरक का कार्य किया। अर्थात् प्रेरणा यहाँ से मिली और परम्परा रंगमंच से। हालाँकि ये म्यूज़िकल फ़िल्में भी वास्तव में पहले से चली आ रही म्यूज़िकल नाटकों का सिनेमाई संस्करण थीं।
हॉलीवुड में सवाक् फ़िल्म के आने के बाद जल्दी ही भारतीय सिनेमा उद्योग भी इस दिशा में प्रयास करने लगा। कई स्टूडियो सवाक् फ़िल्म के निर्माण में लगे थे, लेकिन इस क्षेत्र में पहली सफलता इम्पीरियल मूवीटोन को मिली। इम्पीरियल मूवीटोन कम्पनी में आर्देशिर मरवान ईरानी के निर्देशन में निर्मित और 1931 ई० में प्रदर्शित सौ टका बोलती, नाचती, गाती फ़िल्म ‘आलमआरा’ भारत की पहली सवाक् फ़िल्म बनी और ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे ताकत हो गर देने की…’ भारतीय सिनेमा का पहला गीत। इस फ़िल्म के साथ हिन्दी फ़िल्मों में जो गीतों की परम्परा आरम्भ हुई उसमें अब भी निरन्तरता बनी हुई है। गीतों की प्रकृति में परिवर्तन होता रहा, गीतों की संख्या, गीतों की अवधि या गीतों की भाषा में भी समयानुसार परिवर्तन होते रहें, लेकिन गीत हिन्दी फ़िल्मों का अनिवार्य अंग अब भी बने हुए हैं तथा आगे भी बने रहेंगे।
पारसी रंगमंच में गीतों की योजना के पीछे मनोरंजन एक बड़ा हेतु था, लेकिन ये गीत मनोरंजन के अतिरिक्त एक रंग युक्ति के रूप में रचनात्मक अभिप्राय भी सिद्ध करते थे। पारसी नाटकों में गीत पात्रों की मनःस्थिति के प्रकटीकरण में, किसी चरित्र को विस्तार देने में, संवाद के प्रभाव की वृद्धि में, विशेष वातावरण की सृष्टि में तथा नाटकीय घटना-व्यापार को सघन बनाने जैसे बहुत से रचनात्मक अभिप्रायों की सिद्धि के लिए प्रयोग में लाए जाते थे। हिन्दी फ़िल्मों में भी इन्हीं प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए गीतों की योजना की जाती है। सामान्य एकल गीतों के अतिरिक्त हिन्दी फ़िल्मों में युगल गीतों का भी प्रचलन है। इन युगल गीतों की परम्परा भी पारसी रंगमंच तक जाती है, “युगल-गीत की उद्भावना- यह पारसी नाटक की अपनी ऐसी मौलिक खोज है, जिसका प्रचलन न तो शास्त्रीय या लोक रंगमंच में ही दिखाई पड़ता है और न ही इसकी किसी प्रकार की परम्परा के संकेत पाश्चात्य रंगमंच के इतिहास में कहीं दिखाई पड़ते हैं। अपने अस्तित्व के बाद आविष्कृत फ़िल्म जैसे माध्यम में इस युक्ति का प्रयोग वास्तव में पारसी नाटक की ही देन है।” 15.
निष्कर्ष: सबका निचोड़ यह है कि भारतीय सिनेमा की प्रकृति हॉलीवुड से भिन्न है। अतः हॉलीवुड को मानक मानकर भारतीय फ़िल्मों का मूल्यांकन भ्रामक और दोषपूर्ण ही होगा। हॉलीवुड और हिन्दी सिनेमा, दोनों गुणात्मक रूप से भिन्न रचनात्मक तन्त्रों के अंग हैं- इनकी प्रकृति अपने अंगी रचनात्मक तन्त्र के अनुरूप ही होगी। हिन्दी सिनेमा ने अपना रचनात्मक व्याकरण पारसी रंगमंच से ग्रहण किया है। अतः अन्य विशेषताओं के साथ जिस गीत-संगीत के लिए यह पूरी दुनिया में जाना जाता है वह भी उसे पारसी रंगमंच से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है।
सन्दर्भ-
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नेमिचन्द्र जैन : रंग परम्परा, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण- 1996, पृ. 43
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अनिल भार्गव : हिन्दी फ़िल्म संगीत 75 वर्षों का सफ़र, वाङ्गमय प्रकाशन, जयपुर, संस्करण- 2006, पृ. 7
देवेन्द्र राज अंकुर : रंग कोलाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2000, पृ. 92
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