भक्ति और उसके प्रकार
अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही भक्ति है। भक्ति प्रेम की वह धारा है जो हृदय के समस्त कलुषों को बहा कर उसे निर्मल तो करती है साथ ही भक्त को भी इस लोक से परे, वहाँ ले जाती है, जहाँ केवल आनंद ही आनंद है; जहाँ ईश्वर हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए गीता में कृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का उपदेश दिया है। भक्ति को इनमें सबसे उत्तम मन गया है क्योंकि यह सहज साध्य है तथा यह इसलिए भी उत्तम है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण समर्पण को प्रधानता दी गई है। सम्पूर्ण समर्पण के बिना भक्ति संभव नहीं हो सकती है और अहंकार के रहते आत्म-समर्पण नहीं हो सकता है - "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।" कुछ लेने के लिए झुकना पड़ता है। विनीत याचक को ही दान दिया जा सकता है, रौब के साथ क्या याचना संभव है? रौब से याचना नहीं डकैती की जाती है। वैसे, भक्ति तो निष्काम की जाती है। भक्त की इच्छा यदि कुछ होती भी है तो भी वह अपने आराध्य के सामीप्य की इच्छा और अनुकम्पा की कामना से अधिक कुछ नहीं होती। परन्तु इसके लिए भी आराध्य का अनुराग्रह आवश्यक है, और उनके अनुग्रह के लिए विनय आवश्यक है।