भक्ति क्या है ?
भक्ति क्या है ?
भक्ति क्या है इस प्रश्न का उत्तर देना सहज नहीं है। भक्ति का जन्म और विकास दोनों ही जन सामान्य के बीच हुआ। जन सामान्य को इसे परिभाषित करने की आवश्यकता प्रतीत ही नहीं हुई क्योंकि सामान्य जनता इसे बिना परिभाषा के भी समझती है। हाँ बहुत से आचार्यों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया तथा अपने-अपने मत के अनुसार परिभाषित किया भी, परन्तु जन सामान्य को परिभाषा की आवश्यकता न तब थी और न अब ही है।
बचपन में मेरे लिए भक्ति आदि को समझना अधिक कठिन नहीं था। मैं भक्ति को समझ सकता था, अंदर से, अंतर से। आयु कम थी, बुद्धि अल्पविकसित थी, तब भी उसे मैं समझ सकता था लेकिन अब समझना मुश्किल लगता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भक्ति को समझने के लिए बुद्धि की आवश्यकता उतनी नहीं है जितनी हृदय की है। भक्ति हृदय का व्यापार है और यह हृदय के द्वारा ही संभव है। अब इतना तो तय है की हर सामान्य भारतीय भक्ति को हृदय से समझता है, मन से समझता है। उन्हें भाषा की आवश्यकता नहीं पड़ती है पर उनका क्या जिनके भावात्मक व्यापारों में भी बुद्धि दखल देती है?
भक्ति के सामान्य अध्ययन से ही यह कहा जा सकता है कि इसमें और प्रेम में काफी समानताएं हैं। और निष्काम प्रेम तो विशुद्ध भक्ति ही लगता है। प्रेम और भक्ति में इतनी समानता या घनिष्टता है की भरतादि प्राचीन काव्य-कला मर्मज्ञों ने इसे स्वतंत्र रस न मान कर श्रृंगार रास के अंतर्गत ही स्थान दिया है। उनके अनुसार देव विषयक रति ही भक्ति है। अर्थात वे भक्ति को स्वतंत्र न मानकर रति का एक भेद भर मानते हैं।
प्रेम और भक्ति में अभेद्य के कारण ही नारद ने भक्ति को परम प्रेमरूपा कहा है -
' सा त्वस्मिन् परम प्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च '
भक्ति और प्रेम में पर्याप्त समानताएं हैं परन्तु फिर भी यह प्रेम से अलग है, दोनों में अंतर है।
भक्ति में बहुत सी ऐसी शर्ते है जो प्रेम में नहीं है। अनुरक्ति दोनों में में ही अनिवार्य है पर प्रेम में जहाँ अनुरक्ति किस से या किसके प्रति हो यह परिभाषित नहीं है वहीँ भक्ति में अनुरक्ति ईश्वर के प्रति ही होनी चाहिये।
"सा पुरानुरक्तिरीश्वरे"
ये शांडिल्य भक्तिसूत्र में लिखा है।
भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार उसकी पड़ताल कर सर मोनियर विलियम ने यह मत प्रकट किया की इसकी व्युत्पत्ति भज् धातु से हुई होगी। भज् अर्थात 'भाग लेना' परन्तु किसमे भाग लेना? कैसा भाग लेना?'भजन' और 'भजना' जैसे शब्द कुछ इसी तरह के सवाल उठाते हैं।
भक्ति पर परिचर्चा के क्रम में तुलसी का ये दोहा अत्यन्त प्रसांगिक है-
'पुरुष नपुंसक नारि वा, जीव चराचर कोई।
सर्व भाव भज कपट तजि, मोहि परम प्रिय सोई ।।
यहाँ गोस्वामी जी ने स्पष्ट रूप से शरणागति को प्रमुखता दी है। इसी क्रम में हम गीता के उस प्रसिद्ध श्लोक को भी रखते हैं जिसमे कृष्ण ने अर्जुन से शरणागति के लिए कहा है-
'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।'
इस तरह हम भक्ति के दूसरे आधार शरणागति या आत्मसमर्पण के महत्व को समझ सकतें है।
शरणागति को प्रपतिमूला भक्ति में भी अत्यन्त महत्व दिया गया है। प्रपति का अर्थ है अनन्य भक्ति जो भगवान् के अनुग्रह से ही संभव है। इसमें शरणागति के 6 प्रकार बताए गए हैं-
- अनुकूलस्य संकल्प: - भगवान् के अनुकूल बने रहना
- प्रतिकुलस्य वर्जनम् - भगवान् के प्रतिकूल भावादि से स्वयं की रक्षा
- रक्षिष्यतीति विश्वास: - भगवान् रक्षा करेंगे यह विश्वास
- गोप्तृत्व वरणम् - भगवान् का रक्षक रूप में वरण
- आत्मनिक्षेप - आत्मसमर्पण
- कार्पव्यम् - दैन्य
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