भक्ति और उसके प्रकार
अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही भक्ति है। भक्ति प्रेम की वह धारा है जो हृदय के समस्त कलुषों को बहा कर उसे निर्मल तो करती है साथ ही भक्त को भी इस लोक से परे, वहाँ ले जाती है, जहाँ केवल आनंद ही आनंद है; जहाँ ईश्वर हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए गीता में कृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का उपदेश दिया है। भक्ति को इनमें सबसे उत्तम मन गया है क्योंकि यह सहज साध्य है तथा यह इसलिए भी उत्तम है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण समर्पण को प्रधानता दी गई है। सम्पूर्ण समर्पण के बिना भक्ति संभव नहीं हो सकती है और अहंकार के रहते आत्म-समर्पण नहीं हो सकता है -
"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।"
कुछ लेने के लिए झुकना पड़ता है। विनीत याचक को ही दान दिया जा सकता है, रौब के साथ क्या याचना संभव है? रौब से याचना नहीं डकैती की जाती है।
वैसे, भक्ति तो निष्काम की जाती है। भक्त की इच्छा यदि कुछ होती भी है तो भी वह अपने आराध्य के सामीप्य की इच्छा और अनुकम्पा की कामना से अधिक कुछ नहीं होती। परन्तु इसके लिए भी आराध्य का अनुराग्रह आवश्यक है, और उनके अनुग्रह के लिए विनय आवश्यक है।
भक्ति विनय देती है। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग में अहं की गुंजाइश है पर भक्ति में अहं नहीं हो सकता, 'मैं' नहीं हो सकता, वहाँ केवल और केवल हरि ही होंगे।
प्रेम के कई रूप होते हैं । अनुराग कई रूपों में प्रकट होता है। सेवक का स्वामी के प्रति सम्मान, माता का पुत्र के प्रति वात्सल्य, दिन-दुखियों के प्रति करुणा अथवा प्रेमी-प्रेमिका का एक दूसरे के प्रति प्रेम, ये सभी प्रेम के ही विभिन्न रूप है। भक्ति भी प्रेम का ही एक रूप है इसलिए भक्तिमार्ग में भी विभिन्न प्रकार से ईश्वर प्रेम करने की स्वतंत्रता दी गई है। इस अधार पर भक्ति के ५ भेद बताए गए हैं-
१. दास्य भक्ति,
२. सख्य भक्ति,
३. माधुर्य भक्ति,
४. वात्सल्य भक्ति और
५. शांत भक्ति
१. दास्य भक्ति - जब ईश्वर के प्रभाव और प्रभुता के सम्मुख नतमस्तक होकर भक्त ईश्वर की सेवा और आज्ञा पालन को ही सर्वाधिक महत्व देने लगता है तब ऐसी भक्ति दास्य भक्ति कहलाती है। तुलसीदास ने ऐसी ही भक्ति की थी।
२. सख्य भक्ति - अपने आराध्य के प्रभाव को जानते हुए, उसीको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानना तथा स्वयं को उसके अनुकूल बनाने का प्रयास करना, सम्पूर्ण विश्वास के साथ उससे मित्रवत स्नेह रखना तथा उसके लीलाओं का गान करके प्रसन्न रहना। ये सब बातें सख्य भक्ति के अंतर्गत आती हैं। अपने आराध्य का स्मरण भक्त को सुख प्रदान करता है और वो उसी में रमा रहता है। इस तरह की भक्ति सूरदास ने की थी।
३. माधुर्य भक्ति - भक्त जब अपने अराध्य से कान्तभाव से प्रेम करने लगे तो ऐसी भक्ति माधुर्य भक्ति कहलाती है। ब्रजांगनाओं ने कृष्ण से ऐसा ही प्रेम किया था। मीरा ने भी कृष्ण की आराधना पति रूप में की थी।
यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि माधुर्य भक्ति सूफ़ियों के प्रेममार्ग से भिन्न है वहाँ ईश्वर स्त्री है तथा भक्त पुरुष , अर्थात वहाँ कान्ताभाव नहीं है।
४. वात्सल्य भक्ति - भक्ति के इस प्रकार में भक्त या तो अपने अराध्य को पितृवत प्रेम करने लगता है अथवा भगवान के बालरूप पर मुग्ध हो कर उसकी सेवा में उसी तरह लग जाता है जैसे कोई अपने शिशु की परवारिश करता है। एक माँ का पुत्र के प्रति प्रेम वात्सल्य कहलाता है अतः इसीलिए इस प्रकार की भक्ति वात्सल्य भक्ति कहलाती है। नन्द यशोदा का कृष्ण के प्रति प्रेम वासल्य भक्ति का ही उदाहरण है।
५. शांत भक्ति - 'यह संसार माया है अर्थात अवास्तविक है। जीवन अनित्य है,क्षणभंगुर है और विषय वासनादि आत्मा के बंधन स्वरुप है' ऐसा मान कर जब कोई भक्त भगवान् की शरण में जाता है, तब एक ओर सांसारिकता के प्रति विरक्ति तथा दूसरी ओर इष्ट प्रति अनुराग के कारण उसके मन एक प्रकार की सम उत्पन्न होता है। इस कोटि की भक्ति इसी प्रकार का निर्विकार और शांत प्रवृति का साधक करता है।
इस प्रकार भक्ति के अनेक रूप है, अनेक रीतियाँ है। कोई ईश्वर को स्वामी के रूप में देखता है तो कोई सखा भाव से, कोई उन्हें पुत्रवत प्रेम करता है तो कोई पति के रूप में। भक्त हर रूप में उनसे प्रेम करने के लिए स्वतंत्र है।
भक्त भगवान् की सेवा करता है, उनकी महिमा का गान करता है, उनकी लीलाओं पर रीझता है, उनसे प्रेम करता है, उनके अनुरूप बनने का प्रयत्न करता है। कभी-कभी वह उनसे रूठ भी जाता है, तो कभी-कभी उपलम्भ भी देता है। वह उनकी बाल-लीलाओं पर मुग्ध होता है तो कभी उन्हीं के पीड़ा में स्वयं भी पीड़ित ओ जाता है। भक्त और भगवान् का यह सम्बन्ध ही भक्ति है।
भक्ति ईश्वर से साक्षात्कार कराती है। इसमें भक्त और भगवान् के बीच अन्य किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती है न ही इसमें धर्म और जाति आदि का भेद-भाव होता है। यह सभी को एक धरातल पर लाती है, मनुष्यता के धरातल पर............ इसीलिए भक्ति आज भी प्रासंगिक है तथा आगे भी रहेगी।
◆सीता-वनवास क्यों उचित था:यहाँ जानिये विस्तार से।
"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।"
कुछ लेने के लिए झुकना पड़ता है। विनीत याचक को ही दान दिया जा सकता है, रौब के साथ क्या याचना संभव है? रौब से याचना नहीं डकैती की जाती है।
वैसे, भक्ति तो निष्काम की जाती है। भक्त की इच्छा यदि कुछ होती भी है तो भी वह अपने आराध्य के सामीप्य की इच्छा और अनुकम्पा की कामना से अधिक कुछ नहीं होती। परन्तु इसके लिए भी आराध्य का अनुराग्रह आवश्यक है, और उनके अनुग्रह के लिए विनय आवश्यक है।
भक्ति विनय देती है। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग में अहं की गुंजाइश है पर भक्ति में अहं नहीं हो सकता, 'मैं' नहीं हो सकता, वहाँ केवल और केवल हरि ही होंगे।
प्रेम के कई रूप होते हैं । अनुराग कई रूपों में प्रकट होता है। सेवक का स्वामी के प्रति सम्मान, माता का पुत्र के प्रति वात्सल्य, दिन-दुखियों के प्रति करुणा अथवा प्रेमी-प्रेमिका का एक दूसरे के प्रति प्रेम, ये सभी प्रेम के ही विभिन्न रूप है। भक्ति भी प्रेम का ही एक रूप है इसलिए भक्तिमार्ग में भी विभिन्न प्रकार से ईश्वर प्रेम करने की स्वतंत्रता दी गई है। इस अधार पर भक्ति के ५ भेद बताए गए हैं-
१. दास्य भक्ति,
२. सख्य भक्ति,
३. माधुर्य भक्ति,
४. वात्सल्य भक्ति और
५. शांत भक्ति
१. दास्य भक्ति - जब ईश्वर के प्रभाव और प्रभुता के सम्मुख नतमस्तक होकर भक्त ईश्वर की सेवा और आज्ञा पालन को ही सर्वाधिक महत्व देने लगता है तब ऐसी भक्ति दास्य भक्ति कहलाती है। तुलसीदास ने ऐसी ही भक्ति की थी।
२. सख्य भक्ति - अपने आराध्य के प्रभाव को जानते हुए, उसीको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानना तथा स्वयं को उसके अनुकूल बनाने का प्रयास करना, सम्पूर्ण विश्वास के साथ उससे मित्रवत स्नेह रखना तथा उसके लीलाओं का गान करके प्रसन्न रहना। ये सब बातें सख्य भक्ति के अंतर्गत आती हैं। अपने आराध्य का स्मरण भक्त को सुख प्रदान करता है और वो उसी में रमा रहता है। इस तरह की भक्ति सूरदास ने की थी।
३. माधुर्य भक्ति - भक्त जब अपने अराध्य से कान्तभाव से प्रेम करने लगे तो ऐसी भक्ति माधुर्य भक्ति कहलाती है। ब्रजांगनाओं ने कृष्ण से ऐसा ही प्रेम किया था। मीरा ने भी कृष्ण की आराधना पति रूप में की थी।
यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि माधुर्य भक्ति सूफ़ियों के प्रेममार्ग से भिन्न है वहाँ ईश्वर स्त्री है तथा भक्त पुरुष , अर्थात वहाँ कान्ताभाव नहीं है।
४. वात्सल्य भक्ति - भक्ति के इस प्रकार में भक्त या तो अपने अराध्य को पितृवत प्रेम करने लगता है अथवा भगवान के बालरूप पर मुग्ध हो कर उसकी सेवा में उसी तरह लग जाता है जैसे कोई अपने शिशु की परवारिश करता है। एक माँ का पुत्र के प्रति प्रेम वात्सल्य कहलाता है अतः इसीलिए इस प्रकार की भक्ति वात्सल्य भक्ति कहलाती है। नन्द यशोदा का कृष्ण के प्रति प्रेम वासल्य भक्ति का ही उदाहरण है।
५. शांत भक्ति - 'यह संसार माया है अर्थात अवास्तविक है। जीवन अनित्य है,क्षणभंगुर है और विषय वासनादि आत्मा के बंधन स्वरुप है' ऐसा मान कर जब कोई भक्त भगवान् की शरण में जाता है, तब एक ओर सांसारिकता के प्रति विरक्ति तथा दूसरी ओर इष्ट प्रति अनुराग के कारण उसके मन एक प्रकार की सम उत्पन्न होता है। इस कोटि की भक्ति इसी प्रकार का निर्विकार और शांत प्रवृति का साधक करता है।
इस प्रकार भक्ति के अनेक रूप है, अनेक रीतियाँ है। कोई ईश्वर को स्वामी के रूप में देखता है तो कोई सखा भाव से, कोई उन्हें पुत्रवत प्रेम करता है तो कोई पति के रूप में। भक्त हर रूप में उनसे प्रेम करने के लिए स्वतंत्र है।
भक्त भगवान् की सेवा करता है, उनकी महिमा का गान करता है, उनकी लीलाओं पर रीझता है, उनसे प्रेम करता है, उनके अनुरूप बनने का प्रयत्न करता है। कभी-कभी वह उनसे रूठ भी जाता है, तो कभी-कभी उपलम्भ भी देता है। वह उनकी बाल-लीलाओं पर मुग्ध होता है तो कभी उन्हीं के पीड़ा में स्वयं भी पीड़ित ओ जाता है। भक्त और भगवान् का यह सम्बन्ध ही भक्ति है।
भक्ति ईश्वर से साक्षात्कार कराती है। इसमें भक्त और भगवान् के बीच अन्य किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती है न ही इसमें धर्म और जाति आदि का भेद-भाव होता है। यह सभी को एक धरातल पर लाती है, मनुष्यता के धरातल पर............ इसीलिए भक्ति आज भी प्रासंगिक है तथा आगे भी रहेगी।
◆सीता-वनवास क्यों उचित था:यहाँ जानिये विस्तार से।
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