कबीर की भक्ति के सामाजिक सन्दर्भ की प्रासंगिकता पर विचार
हर युग का साहित्य अपने समय के समाज से प्रभावित होता है। साहित्य या आध्यात्मिक चेतना के लिए समाज-निरपेक्ष होना संभव नहीं है। कबीर की आध्यात्मिक चेतना अथवा उनकी भक्ति की विशेषता यही है कि यह समाज से जुड़ी हुई है। उनकी भक्ति में सामान्य गृहस्थों के लिए भी स्थान है तथा यह भौतिक जगत की भी पूर्णतः उपेक्षा नहीं करती है। उनकी कविता भी इसी कारण से विशिष्ट है। कबीर की कविता निरीह-शोषित जनता के साथ खड़ी होती है, उनका स्वर बनती है तथा शोषक सामंत वर्ग का ज़ोरदार ढंग से विरोध भी करती है।
कबीर की कविता अथवा उनकी भक्ति या साधना-पद्धति की सामाजिक प्रासंगिकता पर विचार करने के क्रम में इस बात पर भी विचार करना होगा कि कबीर की भक्ति किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकों का प्रतिफल है? सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका क्या है? तथा समाज के लिए उसकी उपयोगिता क्या है?
कबीर मध्ययुगीन संत कवि है। मध्य-युग हिंदी साहित्य के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण काल रहा है। मध्ययुग का पूर्वार्द्ध जहाँ भक्ति आंदोलन का काल रहा है वहीँ इसका उत्तरार्द्ध घोर भौतिकवादी मान्यताओं वालें रीतिग्रंथकारों का भी काल रहा है। भारत में मध्ययुग सामाजिक उत्तल-पुथल का काल रहा है। शोषक सामंत, निर्धनों और निम्नवर्ग का शोषण कर रहें थें। निम्नवर्ग अथवा स्पष्ट कहें तो निचली जातियाँ एक ओर तो तो सामंती उत्पीड़न से बेहाल थीं तथा दूसरी ओर सामाजिक भेद-भाव से से त्रस्त थीं। जाति-पाति का भेद-भाव अपने चरम पर था। मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा था तथा पाखण्ड और आडम्बर की जड़े तेजी से फैलती जा रहीं थी। कबीर का जन्म ऐसे ही समय में हुआ था।
कबीर निम्न तबके के जुलाहे थें। उन्होंने सामाजिक भेद-भाव का विष-दंश झेल था। जाति प्रथा पर आधारित जन्मगत श्रेष्ठता का प्रचलन तथा श्रेष्ठ गुणों का तिरस्कार आदि उन्होंने स्वयं देखा था। कबीर को ये भेद-भाव स्वीकार नहीं थें। अतः उन्होंने व्यक्ति को जन्म के आधार पर नहीं, कर्मों और गुणों के आधार पर श्रेष्ठ माना है।-
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करों तलवार की पड़ी रहन दो म्यान॥"
कबीर निर्गुण भक्ति और शंकर के अद्वैत को अपनाया। इन दोनों के लिए ही काफी उच्च ज्ञान तथा बौद्धिकता अनिवार्य है। कबीर न तो ब्राह्मण थें और नहीं पर्याप्त रूप से शिक्षित ही थें, फिर उन्होंने ऐसा मत क्यों चुना?
कबीर उच्च कोटि के मानवतावादी संत थें। प्रारम्भ में बड़े सरल और भावुक रहे होंगे। उनकी सरलता उनमें बची रही, बाद में उनकी अक्खड़ता-फक्कड़ता के रूप में स्थान्तरित हो गई, क्योंकि जो सरल होता है वही बेबाक होता है; परन्तु उनकी भावुकता के साथ क्या हुआ?
अपने हिंदी साहित्य के इतिहास स्वयं आचार्य शुक्ल लिखते है की रामानंद जी के प्रभाव के कारण उन्हें हिन्दू रीति-रिवाज आकर्षित करते थें- "वे राम-राम जपा करते और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थें।"
यह संभव है कि बाल्यावस्था में सगुण भक्ति की ओर इनकी रुचि रही हो परन्तु यदि ऐसा था तो इन्होंने निर्गुण भक्ति क्यों स्वीकार की? रामानंद जी स्वयं सगुणोपासक थे एवं सगुन रामोपासना का उपदेश देते थे।
गंगा तट वाली घटना में भी उन्होंने कबीर से यही कहा था कि 'राम-राम बोल'। उनके इस राम का आशय सगुन राम से था, फिर कबीर की गुरु भक्ति की भावना भी विख्यात है-
"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनै, गोविन्द दियो बताय॥"
"यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।"
आखिर क्या कारण था कि रामानंद जी के मन्त्र को भी कबीर ने अपनी मान्यता के अनुसार परिवर्तित करके ही स्वीकाार किया?
यदि यह संभव है की कबीर सगुन भक्ति तथा हिंदू रीति-रिवाजों(भक्ति की पद्धति) के प्रति आकर्षित थे, तब यह भी संभव है कि उनके कार्यों का यथा नाम जप तथा तिलक लेपन आदि का विरोध हुआ हो। हिंदू-मुस्लिम दोनों ने इसका विरोध किया होगा। बालक कबीर पर इसका क्या प्रभाव पड़ा होगा? हिन्दू मुस्लिम, ऊँच-नीच का भेद-भाव, छूआ-छूत इन सबने कबीर को अंदर से झकझोर दिया।कबीर की भावुकता दब गई तथा उनके स्थान पर भेद-भाव के विरोध के लिए आवश्यक जुझारूपन उनके अंदर विकसित हुआ।
सगुण भक्ति को स्वीकार न करने के दो प्रमुख कारण हो सकते हैं। प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह की सगुण भक्ति चाहे-अनचाहे ब्राह्मणवादी पौराणिकता, सामंती रुढ़िओं और भेद-भाव का पोषण करती है। मानव-मानव में समानता की जो भावना कबीर चाहतें थे, वह सगुण भक्ति में संभव नहीं थी। दूसरा कारण मेरे अनुसार कहीं न कहीं यह भी हो सकता है कि इस्लामिक संस्कारों और मान्यताओं के अनुसार सगुण भक्ति इनके अनुकूल न थी।
कबीर मानव मात्र से प्रेम से प्रेम करते थे। इनके लिए सब सामान है, कोई भेद नहीं है। न कोई राजा है, न कोई रंक है, न कोई पंडित है, न कोई मुर्ख, न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र; सभी उसी परमब्रह्म के अंश हैं, सभी ब्रह्म हैं।
शंकर के अद्वैत को स्वीकार करने के पीछे इनका यह मानव मात्र के प्रति प्रेम तथा उनकी समदृष्टि ही कारण था। इस प्रकार इनकी भक्ति साधना और इनके दार्शनिक विचार सब समाज के द्वारा ही उत्प्रेरित थें।
कबीर एक भक्त के साथ ही समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। समाज सुधार के उनके कार्य या उनकी कविता की सामाजिकता का अध्ययन हम निम्नांकित बिन्दुओं के अंतर्गत करेंगे।
कबीर की कविता अथवा उनकी भक्ति या साधना-पद्धति की सामाजिक प्रासंगिकता पर विचार करने के क्रम में इस बात पर भी विचार करना होगा कि कबीर की भक्ति किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकों का प्रतिफल है? सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका क्या है? तथा समाज के लिए उसकी उपयोगिता क्या है?
कबीर मध्ययुगीन संत कवि है। मध्य-युग हिंदी साहित्य के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण काल रहा है। मध्ययुग का पूर्वार्द्ध जहाँ भक्ति आंदोलन का काल रहा है वहीँ इसका उत्तरार्द्ध घोर भौतिकवादी मान्यताओं वालें रीतिग्रंथकारों का भी काल रहा है। भारत में मध्ययुग सामाजिक उत्तल-पुथल का काल रहा है। शोषक सामंत, निर्धनों और निम्नवर्ग का शोषण कर रहें थें। निम्नवर्ग अथवा स्पष्ट कहें तो निचली जातियाँ एक ओर तो तो सामंती उत्पीड़न से बेहाल थीं तथा दूसरी ओर सामाजिक भेद-भाव से से त्रस्त थीं। जाति-पाति का भेद-भाव अपने चरम पर था। मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा था तथा पाखण्ड और आडम्बर की जड़े तेजी से फैलती जा रहीं थी। कबीर का जन्म ऐसे ही समय में हुआ था।
कबीर निम्न तबके के जुलाहे थें। उन्होंने सामाजिक भेद-भाव का विष-दंश झेल था। जाति प्रथा पर आधारित जन्मगत श्रेष्ठता का प्रचलन तथा श्रेष्ठ गुणों का तिरस्कार आदि उन्होंने स्वयं देखा था। कबीर को ये भेद-भाव स्वीकार नहीं थें। अतः उन्होंने व्यक्ति को जन्म के आधार पर नहीं, कर्मों और गुणों के आधार पर श्रेष्ठ माना है।-
"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करों तलवार की पड़ी रहन दो म्यान॥"
कबीर निर्गुण भक्ति और शंकर के अद्वैत को अपनाया। इन दोनों के लिए ही काफी उच्च ज्ञान तथा बौद्धिकता अनिवार्य है। कबीर न तो ब्राह्मण थें और नहीं पर्याप्त रूप से शिक्षित ही थें, फिर उन्होंने ऐसा मत क्यों चुना?
कबीर उच्च कोटि के मानवतावादी संत थें। प्रारम्भ में बड़े सरल और भावुक रहे होंगे। उनकी सरलता उनमें बची रही, बाद में उनकी अक्खड़ता-फक्कड़ता के रूप में स्थान्तरित हो गई, क्योंकि जो सरल होता है वही बेबाक होता है; परन्तु उनकी भावुकता के साथ क्या हुआ?
अपने हिंदी साहित्य के इतिहास स्वयं आचार्य शुक्ल लिखते है की रामानंद जी के प्रभाव के कारण उन्हें हिन्दू रीति-रिवाज आकर्षित करते थें- "वे राम-राम जपा करते और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थें।"
यह संभव है कि बाल्यावस्था में सगुण भक्ति की ओर इनकी रुचि रही हो परन्तु यदि ऐसा था तो इन्होंने निर्गुण भक्ति क्यों स्वीकार की? रामानंद जी स्वयं सगुणोपासक थे एवं सगुन रामोपासना का उपदेश देते थे।
गंगा तट वाली घटना में भी उन्होंने कबीर से यही कहा था कि 'राम-राम बोल'। उनके इस राम का आशय सगुन राम से था, फिर कबीर की गुरु भक्ति की भावना भी विख्यात है-
"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनै, गोविन्द दियो बताय॥"
"यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।"
आखिर क्या कारण था कि रामानंद जी के मन्त्र को भी कबीर ने अपनी मान्यता के अनुसार परिवर्तित करके ही स्वीकाार किया?
यदि यह संभव है की कबीर सगुन भक्ति तथा हिंदू रीति-रिवाजों(भक्ति की पद्धति) के प्रति आकर्षित थे, तब यह भी संभव है कि उनके कार्यों का यथा नाम जप तथा तिलक लेपन आदि का विरोध हुआ हो। हिंदू-मुस्लिम दोनों ने इसका विरोध किया होगा। बालक कबीर पर इसका क्या प्रभाव पड़ा होगा? हिन्दू मुस्लिम, ऊँच-नीच का भेद-भाव, छूआ-छूत इन सबने कबीर को अंदर से झकझोर दिया।कबीर की भावुकता दब गई तथा उनके स्थान पर भेद-भाव के विरोध के लिए आवश्यक जुझारूपन उनके अंदर विकसित हुआ।
सगुण भक्ति को स्वीकार न करने के दो प्रमुख कारण हो सकते हैं। प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह की सगुण भक्ति चाहे-अनचाहे ब्राह्मणवादी पौराणिकता, सामंती रुढ़िओं और भेद-भाव का पोषण करती है। मानव-मानव में समानता की जो भावना कबीर चाहतें थे, वह सगुण भक्ति में संभव नहीं थी। दूसरा कारण मेरे अनुसार कहीं न कहीं यह भी हो सकता है कि इस्लामिक संस्कारों और मान्यताओं के अनुसार सगुण भक्ति इनके अनुकूल न थी।
कबीर मानव मात्र से प्रेम से प्रेम करते थे। इनके लिए सब सामान है, कोई भेद नहीं है। न कोई राजा है, न कोई रंक है, न कोई पंडित है, न कोई मुर्ख, न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र; सभी उसी परमब्रह्म के अंश हैं, सभी ब्रह्म हैं।
शंकर के अद्वैत को स्वीकार करने के पीछे इनका यह मानव मात्र के प्रति प्रेम तथा उनकी समदृष्टि ही कारण था। इस प्रकार इनकी भक्ति साधना और इनके दार्शनिक विचार सब समाज के द्वारा ही उत्प्रेरित थें।
कबीर एक भक्त के साथ ही समाज सुधारक के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। समाज सुधार के उनके कार्य या उनकी कविता की सामाजिकता का अध्ययन हम निम्नांकित बिन्दुओं के अंतर्गत करेंगे।
*एकता और समन्वय का प्रयास, जाति-पाति का विरोध-
कबीर का समाज ऊँच-नीच, सवर्ण-कुवर्ण, ब्राह्मण-शूद्र, शोषक-शोषित, हिन्दू-मुसलमान इत्यादि में बँटा था ही समाज का ईश्वर भी बँटा हुआ थ। हिन्दू-मुसलमान में वैमनस्य बढ़ रहा था।-
"संतौ देखहु जग बौराना हिन्दू कहे मोहि राम पियारा तुरक कहे रहिमाना।"
तत्कालीन समाज में ईर्ष्या और द्वेष से भरा वातावरण था, परन्तु कबीर को हिंदू और मुसलमान दोनों ही प्यारे थे। ये तो मानव मात्र से प्रेम करते थे, इनके लिए सब बराबर थें। अतः ये एक ऐसा पंथ बनना चाहते थे, ऐसी साधना पद्धति विकसित चाहते थे जिससे हिन्दू और मुसलमान दोनों स्वीकार कर सकें। इसीलिए इन्होंने निर्गुण भक्ति का आश्रय लिया तथा राम और रहीम को एक बताकर उस एक सच्चे ईश्वर की आराधना का उपदेश दिया जो सबसे ऊपर है जो परमतत्व है, परमात्मा है। सामाजिक भेद-भाव का स्वाद इन्होंने स्वाम चखा था। समाज को तोड़ने वाली इन विभेदकारी रूढ़ियों को ये कभी प्रोत्साहित नहीं कर सकते थे। इन्होंने मानव मात्र की एकता पर बल दिया-
" एक बून्द एकै मल-मूतर, एक चाम एक गुदा। एक जोति से सब उत्पन्ना, को बाह्मन को सूदा।।"
इन्होंने बताया कि सब उसी राम के अंश हैं, अन्य सभी भेद माया जनित भ्रम हैं तथा जिन लोगों ने अपने आपको श्रेष्ट घोषित करने का प्रयास किया उन्हें इन्होंने डाँट भी लगाई-
"ऊंचे कुल का जनमिया, करनी ऊँच न होय। सुबरन कलश सूरा भरा, साधू निंदै सोय॥"
"जो तू बाभन बभनी जाया, आन राह तै क्यों नहीं आया।
जो तू तुरक तुरकनी जाया, भीतर खतना क्यों न कराया।।"
इस प्रकार कबीर ने जनता और जनता के ईश्वर को एक कर सामाजिक एकता को बल प्रदान किया।
*माध्यम मार्ग का अनुसरण -
कबीर की भक्ति माध्यम मार्गी थी। कबीर न तो शरीर का दमन कर घोर तप करने को कहते है और न ही विषय-वासना आदि में रत रहने को कहते हैं। ये जानते थे की 'यदि शरीर को अधिक कष्ट देकर भगवान का भजन किया गया तो वह अधिक दिनों तक बचेगा नहीं और यदि विषयासक्त होकर भजन किया जाएगा तो मन भजन की और उन्मुख नहीं होगा।' घोर तप साधारण जनता के लिए संभव भी नहीं था। इसीलिए कबीर ने माध्यम मार्ग का उपदेश दिया। ये स्वयं उच्च कोटि के साधक होकर भी अपना पैतृक कर्म करते रहें। इस तरह इन्होंने न तो धन-संग्रह में ही जी-जान से लग जाने का उपदेश दिया है न ही यही कहा है की घर-बार छोड़ कर निकम्मे फ़क़ीर बन जाओ। इनके अनुसार धन का उतना ही संग्रह करना चाहिए जिससे परिवार का पालन-पोषण भी हो जाए तथा घर आया अतिथि भी भूखा न जाए।-
"साईं इतना दीजिये जा में कुटुंब समाय।.........
*आचरण की शुद्धता - कबीर के भक्ति मार्ग की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह आचरण की शुद्धता पर बल देता है। कबीर ने सामान्य जनता को सही मार्ग दिखाया। इन्होंने उन्हें बताया कि भक्ति के लिए आचरण की शुद्धता अनिवार्य है। इन्होंने उन्हें सत्य, अहिंसा तथा कर्म का महत्त्व बताया।
"साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।"
आचरण की शुद्धता के लिए कबीर ने सद्पुरुषों की संगति को श्रेष्ठतम उपाय बताया है।-
"कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ।"
*बाह्य आडम्बरों का विरोध-
कबीर एक सीधें और सच्चे साधक थे। सार-सार को ग्रहण कर थोथा उड़ा देना उनका आदर्श था। साधना में बाह्याडम्बरों का इन्होंने जम कर विरोध किया। बाह्याडम्बरों के विरोध में रचित इनके दोहे काफी व्यंगपूर्ण और प्रभावी हैं।
वे निर्गुण भक्त थे अतः मूर्तिपूजा में उन्हें कोई लाभ दिखता न था। निराकार परमात्मा के स्थान पर पत्थर की मूर्ती उन्हें जँचती न थी। इसीलिए इन्होंने मूर्तिपूजा का जम कर विरोध किया-
"पाथर पूजै हरी मिलै, तो मैं पूजूँ पहार ।
ताते तो चक्की भली, पीसि खाय संसार॥"
कबीर आतंरिक साधना पर बल दिया, माला फेरने और तिलक-कंठी धारण करने को व्यर्थ बताया।
"माला फेरत जुग गया, गया न मनका फेर।
करका मनका डारि दे, मन का मनका फेर॥"
हिन्दुओं की ही भाँति इन्होंने इस्लाम की धार्मिक कट्टरता, बाह्याडम्बरों और रूढ़ियों का प्रबल विरोध किया।
"कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता छड़ी मुल्ला बांगदे, क्या बाहर हुआ खुदाय॥"
*संक्षिप्त निष्कर्ष- संत कबीर के विचार दीर्घकालीन भारतीय चिंतन शृंखला की कड़ी के रूप में सामने आते हैं। कबीर के विचार उपनिषदों, भगवान बुद्ध की मान्यताओं, शंकर के विचारों और मध्कालीन सिद्धों की शिक्षाओं के सार हैं। कबीर की साधना पद्धति, उनकी भक्ति और उनके सामाज सुधार के विचार उस समय भी महत्वपूर्ण थें तथा आज भी महत्वपूर्ण हैं। आज भी तमाम ऐसे उपकरण हैं, ऐसे व्यर्थ के कार्य हैं जिनका मानव के जीवन में कोई महत्व नहीं है, परन्तु मानव है कि अपने जरूरी कार्यों को छोड़ कर उन व्यर्थ के कामों में लगा रहता है। ये कार्य, ये उपकरण और कुछ नहीं माया ही है। हमें इनके बीच ठीक वैसे ही रहना होगा जैसे कबीर घर-गृहस्थी में होने के बाद भी विरक्त हो कर जीते थे। 'उपयोग उतना ही होना चाहिए जितना अनिवार्य हो अधिक की लालसा व्यर्थ है', आज के भौतिकवादी विश्व में कबीर के ये विचार और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। समदृष्टि की जो बात कबीर ने कही थी, उन्होंने जो मानव-मानव के बीच अभेद्य की बात कही थी वह आज के समय में प्रासंगिक है।
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जय गुरुदेव
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जवाब देंहटाएं🌷🙏जय श्री कृष्ण🙏🌷
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