आशा है।


                                                            *१

स्रष्टा उन दिनों सृष्टि करने में व्यस्त थे। प्रतिदिन ही वे किसी न किसी जीव की रचना करते थे और प्रत्येक जीव की रचना करते समय वे किसी विशेष गुण या प्रवृति को ध्यान में रखते थे। हाथी का सृजन उन्होंने बल को ध्यान में रख कर किया तथा घोड़े का सृजन हुआ गति को ध्यान में रख कर। इसी तरह विभिन्न प्रकार के जीवों की रचना होती गई और उनसे धरित्री सुशोभित होती गई।
उस दिन वे कुछ उद्विग्न प्रतीत हो रहे थे। कारण यह था कि  वे अपनी कल्पना शक्ति की सीमा तक सृजन कर चुके थे परन्तु मानसिक तृप्ति उन्हें अब भी नहीं मिली थी। बड़े ही अन्यमनस्क ढंग से उन्हंने एक जीव की रचना शुरू की परन्तु आज  उनके मन में कोई विशेष गुण नहीं था, जिसके आधार पर वे अपनी रचना करते। सृजन क्रिया के संपादन के पश्चात जब उनकी दृष्टि अपनी रचना पर पड़ी, तब वे सोच में पड़ गए। यह नया जीव न हाथी के जैसा विशाल और बलवान ही था न घोड़े जैसा वेगवान्।
आजतक स्रष्टा की कोई रचना व्यर्थ नहीं गई थी। परन्तु आज उन्हें अपनी रचना पर संदेह हो रहा था। "क्या इतने  विशाल, भयंकर और बलशाली जीवों के बीच इसका जीवन संभव है?" उस निरीह जीव को देखकर स्रष्टा के मन में शंका उत्पन्न हुई। आज तक उन्होंने अपनी किसी भी रचना को बेकार न जाने दिया था अतः इसे भी जीवलोक के तल पर छोड़ दिया गया। अपराधबोध के भाव से उबरने के लिए सराहता ने स्वयं को स्वर्ग के अन्यान्य  कार्यों में व्यस्त कर लिया और उधर वह निरीह जीव अन्य विशाल और हिंसक जीवों के भय से यत्र-तत्र भटकने लगा।

                                                              *२

स्रष्टा ने हर पशु को, हर जीव को कोई न कोई विशेषता दी थी। हाथी इतना विशाल और शक्तिशाली था की कोई भी अन्य पशु उसके समक्ष नहीं ठहर सकता था। घोड़ा अपनी तीव्र गति के कारण संकट से बच सकता था। मत्स्य जल में निवास करते थें। खग आकाश में उड़ान भरते थें। सिंह और व्याघ्र जैसे हिंसक पशुओं को भला किससे भय था? वानर भी पेड़ों पर रहकर अन्य पशुओं से सुरक्षित रहते थें। सर्पादि जीवों के पास तो भयंकर विष ही था तथा मंद गति कछुए के पास भी सुरक्षा-कवच था। परन्तु उसके पास? मानव के पास क्या था?
यह सत्य है की मानव में अन्य पशुओं जैसी कोई विशेषता नहीं थी। परन्तु इस सत्य का दूसरा पक्ष भी था और वह यह था कि  मानव में कई विशेषताएँ थीं, जैसे- वह दौड़ सकता था, ऊँचे पर्वतों पर चढ़ सकता था, वह वह तैर सकता था तथा वृक्षों पर भी चढ़ सकता था। वह अन्न खाता था, वृक्षादि के पत्र खाता था तथा माँस भी खाता था। इनसब के साथ ही एक और बात थी। स्रष्टा ने मानव का सृजन सोच-विचार में उलझ कर किया था फलस्वरूप प्रारम्भ से ही मानव में सोच-विचार की अद्भुत क्षमता थी। अन्य पशुओं के विपरीत मानव हर कार्य सोच-समझ कर करता था जिससे उसका मस्तिष्क उत्तरोत्तर विकसित होने लगा।
इस धरती पर एक समय ऐसे विशाल दैत्याकार जीव रहते थें जिनसे वनराज भी भय खता था। जिनकी विशालता के सम्मुख गजराज भी शर्मा जाता था। वैसे हिंसक जीव भी इस जीवलोक से समाप्त हो गए, मात्र उनके चिन्ह भर शेष हैं। परन्तु मानव प्रकृति की हर परीक्षा को उत्रीण करता गया।

                                                                   *३

अपने दैनिक कार्य-कलापों से फुर्सत पाकर ज्यों ही स्रष्टा अपने आसान पर विराजें त्यों  ही उन्हें किसी पशु का आद्र स्वर सुनाई पड़ा। कौतुहलवश उन्होंने अपनी दृष्टि जीवलोक की ओर केंद्रित की। जो कुछ भी उन्होंने  देखा उसपर विश्वास नहीं हुआ। हरिण, सिंह, व्याघ्र आदि जीव चीत्कार कर रहे थें। वन्य-पशु व्याकुल होकर यत्र-तत्र भाग रहे थें। मानव काठ और पाषाणादि से निर्मित शस्त्रास्त्रों द्वारा वन्य-पशुओं का शिकार कर रहा था। मानव के इस परिवर्तन को देख कर वे भी अचरज में पड़ गए थें। चार पैरों पर चलने वाला मानव आज दो पैरों पर सरपट दौड़ रहा था। उसके भय से अन्य पशु भागे जा रहे थें।
स्रष्टा ने एक सरसरी निगाह से पुरे जीवलोक का अवलोकन किया। व्याघ्र और सिंह जैसे जीवों के तीक्ष्ण नख-दन्त मानवों के बाणों और भालों के सम्मुख लाचार पड़े थें, मानव के अंकुश के समक्ष गजराज भी शीश झुका रहा था, बीन के बल पर मानव विषधर सर्पों को भी अपने संकेत पर नचा रहा था, वह कुत्ते के गले में पट्टा बांध कर उससे अपने घरों की रखवाली करवा रहा था, घोड़े पर लगाम कस कर वह उसकी सवारी कर रहा था, गर्दभ उसका भार धो रहा था, गाय को बाँध कर वह उसके दूध का दोहन कर रहा था तथा शुक-सारिकाओं से अपना मनोरंजन कर रहा था।इस प्रकार जल-थल-नभ का कोई भी जीव सुरक्षित नहीं था।
यह सब देखकर स्रष्टा का हृदय क्षोभ से भर गया। क्रोध के वशीभूत स्रष्टा ने मानवों को दण्डित करने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उन्होंने जीवलोक को जल-प्लावित कर दिया। परन्तु मानव नौका पर सवार होकर भाग निकला। यह देख स्रष्टा का क्रोध और बढ़ गय। उन्होंने बहुत से वनों को जीव-जंतुहीन, जल-विहीन मरुस्थलों में परिवर्तित कर दिया। मानव ने हार नहीं मानी वह और भी अधिक सघन वनों में चला गया। स्रष्टा उन वनों को भी दावाग्नि से दग्ध कर दिया। मानव किसी प्रकार वहाँ से निकल भागा। स्रष्टा असफल हुए, दुखी भी हुए क्योंकि इस क्रम में बहुत से अन्य जीव मारे गए थें। परन्तु वे यह सोचकर प्रसन्न थें कि मानव का आहार समाप्त हो गया है, उसका आवास नष्ट हो गया है, अब स्वयं मानव भी नष्ट हो जाएगा।
भूख से व्याकुल मानव जब तक लौटा तब तक सब कुछ जलकर समाप्त हो गया था। न वन बचा थे न वन्य-पशु ही थे। क्षुधा-विकल मानव ने जल-भुना माँस खाना प्रारम्भ कर दिया जो उन्हें पहले से ज्यादा स्वादिष्ट लग रहा था।
स्रष्टा ने मानवों को दण्डित करने के और भी कई प्रयास किए पर सारे प्रयास विफल हो गए। थक-हार कर उन्होंने यह कार्य अपनी पुत्री प्रकृति को सौंप दिया और स्वयं अन्यान्य कार्यों में लग गए।
प्रकृति ने भी मानव को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन मानव भी दूसरी ही मिट्टी का बना था। विषम प्राकृतिक परिस्थितिओं से बचने के लिए उसने कृत्रिम आवास बनाया, वनाश्रित जीवन को छोड़कर वह खुले मैदानों में पशुचारण करने लगा, शिकार के स्थान पर दुग्ध, फल, तथा अन्न पर निर्भर रहने लगा; वनस्पतिओं की कमी हुई तो उसने बीजों से वनस्पतियाँ उगाना सीखा और कृषि करने लगा।
इस प्रकार मानवों को दण्डित करने के उद्देश्य से प्रकृति ने स्वयं को तरह-तरह से परिवर्तित किया किन्तु मानव ने हर बार उसके अनुरूप स्वयं को परिवर्तित कर लिया। प्रकृति परेशान थी, वह हार चुकी थी पर स्रष्टा के आदेश की अवहेलना वह कैसे  सकती थी?
                                                                *४

स्रष्टा जीवलोक का कुशल-क्षेम जानने के उद्देश्य से इस ओर  ही देख रहे थें की कुछ विचित्र ध्वनियों ने उनका ध्यान अपनी ओर  आकर्षित किया। उन्होंने ध्यान से देखा तो मानव ही वो ध्वनियाँ उत्पन्न कर रहा था। वे आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने प्रकृति का आवाहन किया। वह हाथ बाँध कर उनके समक्ष खड़ी हो गई। उन्होंने उससे भू-लोक की और संकेत कर पूछा (सांकेतिक रूप में हीं) कि, "वह क्या है?"
प्रकृति समझ गई, उसने उत्तर दिया कि, "वह 'भाषा' है। मानव अपने भाव या विचार इसी के माध्यम से व्यक्त करतें हैं।"
स्रष्टा को घोर आश्चर्य हुआ क्योंकि विचारभिव्यक्ति की यह सर्वथा नवीन पद्धति थी। कोई भी पशु यहाँ तक की स्वयं स्रष्टा भी इसका प्रयोग नहीं करते थें। उन्होंने प्रकृति को जाने का आदेश दिया और स्वयं 'भाषा' का अध्य्यन करने लगे। सृष्टि के रचयिता, बुद्धि की परिसीमा, स्रष्टा को इस कार्य में कैसा श्रम करना था? उन्होंने ध्यान दिया तो यह पाया कि मानवों ने 'ध्वनिओं' को आपस में जोड़कर 'शब्द' नामक ध्वनि-समूह विकसित किया था। प्रत्येक शब्द किसी न किसी वास्तु, भाव या विचार का संकेत चिन्ह था। इन्हीं शब्दों को आपस में, एक निश्चित क्रम में जोड़कर वह अर्थपूर्ण वाक्य बनता था। अर्थहीन ध्वनिओं से अर्थपूर्ण वाक्यों का निर्माण उन्हें अत्यंत मनोरंजक लगा। उन्होंने मानव शरीर की रचना के पुनरावलोकन का मन बनाया। वास्तव में उनके मन में कई प्रश्न उठ रहे थें, जैसे- ये ध्वनियाँ उत्पन्न कैसे होती हैं? और फिर ध्वनियाँ तो सभी पशु उत्पन्न करते हैं, तो फिर 'भाषा' नामक यह पद्धति उनके पास क्यों नहीं है? इत्यादि ऐसे कई विचार, कई प्रश्न उनके मन में आ रहे थें।
उनके संकल्प मात्र से एक निष्प्राण मानव शव उनके समक्ष उपस्थित हो गया। कई स्तरों पर विभिन्न प्रकार से जाँच के पश्चात् अंततः उन्होंने पाया कि  मानव के विभिन्न अंग अपने निर्धारित कार्यों के साथ ही अतिरिक्त कार्यों का सम्पादन कर रहे हैं। फेफड़े श्वसन के साथ ही ध्वनि उत्पादन के लिए वायुदाब उत्पन्न कर रहें हैं। कंठ के भीतर का सुरक्षात्मक पट्ट भोज्य पदार्थों से श्वास नलिका की रक्षा के साथ ही स्वर तांत्रि का कार्य कर रहा है।
स्रष्टा ने देखा था की मानव अपने अगले दो पैरों का चलने के स्थान पर नाना प्रकार की वस्तुओं को पकड़ने में प्रयोग करता है, तो मुख से भोजन के साथ ही यदि भाषण भी करने लगा तो क्या आश्चर्य?
"ये शारीरिक संरचनाएँ तो हर पशु के पास है तो फिर केवल मानवों ने ही 'भाषा' का विकास क्यों किया? अन्य पशु ऐसा क्यों नहीं कर पाए?" स्रष्टा के मन में अभी भी अनेक प्रश्न उठ रहे थें। उन्होंने मानव के मस्तिष्क की ओर  देखा और सब समझ गए। आज उन्हें अपनी रचना पर कोई संदेह नहीं था। वे सदा सोचते थें कि मानवों में क्या विशेषताएँ हैं? आज उन्हें उत्तर मिल चुका था। वे प्रसन्न थें, जीवलोक की ओर झाँकने लगे परन्तु जीवलोक में मानवीय क्रिया-व्यापारों को देखकर पुनः शोकग्रस्त हो गए। उन्होंने प्रकृति का आवाहन किया और उसे मानवों का दंड निरस्त करने का आदेश दिया। प्रकृति तो बहुत पहले ही इस कार्य से ऊब चुकी थी पर स्रष्टा के इस आदेश से चकित हुए बिना न रह सकी। उसने प्रतिकार किया- "मानव ने हर जीव-जंतु को अपने वश में कर रखा है। वह मुझसे, सर्वव्यापक प्रकृति से भी भयभीत नहीं होता है। उसे दंड मिलना ही चाहिए।"

"इसकी आवश्यकता नहीं रही।"

प्रकृति स्रष्टा के इस उत्तर से अचरज में पड़ गई। सर्वज्ञ स्रष्टा ने उसके मनोभावों को समझकर उत्तर दिया-
"मानवों ने अभूतपूर्व प्रगति की है तथा आगे भी करते रहेंगे। उन्हें दण्डित करने का हर प्रयास विफल हुआ है  तथा आगे भी होगा। अतः ये प्रयास व्यर्थ हैं।"
एक दीर्घ निःश्वाँस के पाश्चात् उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई- "वास्तव में मानवों ने ऐसी  व्यवस्थाएँ विकसित कर ली है, अपने जीवन में इतनी जटिलता भर ली है कि वह स्वयं ही दण्डित होगा, पीड़ित होगा। अन्य जीव, अन्य पशु यहाँ तक कि तुम और मैं भी उनका कुछ नहीं कर सके तो क्या? मानव ही मानव को दण्डित करेगा। पुरुष, स्त्री को; सवर्ण, कुवर्ण को; नरेश, रंक को तथा  धनिक, धनहीन को दण्डित करेगा। यह प्रक्रिया चलती रहेगी। आज जो शोषक है कल वही शोषित होगा। आज पीड़ा देनावाला कल स्वयं पीड़ित होगा। इस प्रक्रिया से कोई नहीं बचेगा, बारी-बारी से सभी दण्डित होंगे। काश! मैंने मानवों की इस मेधा को समय रहते उचित दिशा दी होती तो आज एक अन्य ही दृश्य उपस्थित होता।"
प्रकृति के समक्ष अपनी व्यथा निकालने के बाद वे दयाभरी दृष्टि से उस मानव शव को निहारने लगे। देखते ही देखते वह शव पंचमहाभूतों में विलीन हो गया।
बेचारी प्रकृति जो कुछ देर तक खड़ी रही फिर अपने पिता के चरणों में जा गिरी। "क्या अब कुछ नहीं हो सकता है? कोई  विकल्प नहीं है? कोई संभावना नहीं है?" उसने पुछा।
सृष्टिकर्ता ने अपनी पुत्री प्रकृति के मुख को दयाभरी दृष्टि से देखा। वे उसके नारी सुलभ करुणा को भाँप गए थे। उन्होंने एक दृष्टि जीवलोक पर भी फेरी और फिर उत्तर दिया, "आशा है।"

वे जानते थे कि मानव अपनी गलतिओं से सीखतें हैं।
                                                                                         - अभिषेक कुमार 'अभिगुप्त', january 2016 (पूनक)


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