निराला, बादल राग 5




प्रस्तुत पंक्तियाँ परिमल काव्य संग्रह के बादल-राग 5 की हैं। इसके पहले महाप्राण निराला ने बादल राग 1,2,3 और 4 में बादल पर विभिन्न पक्षों को लक्ष्य कर के विभिन दृष्टिकोणों से लिखा है। इन पंक्तियों में उन्होंने बादलों के चाक्षुष सौंदर्य का भाँति-भाँति से बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है।


        नयनों के अंजन निरंजन हो चले हैं। अर्थात कवि के अनुसार बादलों की श्यामलता जो असीम आकाश के नयनों का अंजन प्रतीत होती है वह अब हल्की हो चली है। वर्षा होते रहने से बादलों का कालापन दूर हो जाता है, कवि ने उसी ओर संकेत किया है।
        बादल अस्थिर मति के हैं, अपनी दिशा तय ही नही कर पाते हैं। सो कभी इधर कभी उधर, कभी धीमे कभी तेज, कभी बहुत नीचे कभी बहुत ऊपर चंचलता से चलते हैं। वर्षा के कारण नद-नाले, सर-निर्झर सब भर गए हैं। कहीं किसी ओर भी जल की कमी नही है, हर  ओर तरल जल का कलकल प्रवाह है।
         बादल किसी किशोर या नवयुवा की भाँति उत्साह से परिपूर्ण हैं। वे उत्साह में उमड़ते हैं, फिर बरसते-बरसते संकुचित होने लगते हैं और अंत में बरस-बरस कर समाप्त हो जाते हैं। पर कुछ समय बाद पुनः उमड़ने और बरसने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है, अविरत, अनवरत।
           बादलों पर जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं तब एक प्रकार की लालिमा जो थोड़ी-थोड़ी पीत आभा लिए होती है, बादलों को रंग देती है। इस रंग में रंगे बादल दुःख की भयावह अग्नि के समान मालूम पड़ते हैं। ये उमड़-उमड़ कर आते मेघ कभी तो जलनिधि का भ्रम उत्पन्न कर देते हैं और कभी सात रंगों में विभक्त होकर असीम आकाश के इंद्रधनुषी अंजन बन जाते हैं।
      सूर्य की किरणें सागरीय जल को वाष्पित कर बादलों के निर्माण का कार्य करती हैं। कवि को यह ऐसा लगता है मानो जैसे इन्हीं किरणों का हाथ पकड़-पकड़ कर यह वाष्प उन्मुक्त आकाश में चढ़ते हैं। तिमिरहर सूर्य भी अपनी झलमलाती सहस्त्रों किरणों से बादल को प्रणाम करते हैं क्योंकि वह उनके तेज को भी ढक देता है।
   कवि बादलों को संबोधित करते हुए कहता है, 'अहो! महान कार्य की पूर्ति हेतु निकले निराकार! तुम धन्य हो! तुमने तीनों भुवनों को मिला दिया है, एकाकार कर दिया है। धरती से उठते हो , नभ से बरसते हो और पाताल में समा जाते हो।'
   कवि आगे कहता है कि आज श्याम मेघ घनश्याम कृष्ण के समान मनोहर लग रहा है, जिसे देखकर कवि मुक्त कंठ से उसकी प्रसंशा कर रहा है। कवि कहता है- "हे कुसुम के समान कोमल और कठोर वज्र के समान भीषण मेघ! तुम शत-सहस्त्र सूर्यों, चंद्रमाओं और नक्षत्रों से संस्तुत हो, केन्दित हो। तुम्हारी श्यामलता लोगों के दृष्टि का मनोरंजन बन गई है। अतः और उमड़ो, और बरसो।

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