ठूँठ

सूखे पेड़ में भी सुंदरता दिख सकती है। और अगर मेरे इस कथन को गले उतारना कठिन जान पड़े तो मैं इसे और स्पष्ट करते हुए यह कहूँगा कि सूखे पेड़ भी हमें आकृष्ट कर सकते हैं। कम से कम मुझे तो करते हैं। मन के न जाने किस अनजान कोने में जाने कौन सा ऐसा भाव है जो इन पेड़ों से जुड़ाव महसूस करता है। मैं विश्वविद्यालय परिसर के सारे ठूठे पेड़ों को पहचानता हूँ। राह चलते जब इनपर नज़र पड़ती है तो जैसे उलझकर रह जाती है। उसमें भी अगर वो ठूठ शीशम का हो तो क्या कहना! जाने क्यों इन्हें देखकर अपनेपन का भाव में मन में उमड़ता है? ऐसा क्यों होता है?
व्यक्ति की रुचि-अरुचि पर उसकी मनोदशा का बड़ा प्रभाव पड़ता है। एक समय जिस बात या जिस वस्तु के प्रति किसी की रुचि हो किसी अन्य दशा में उसके प्रति अरुचि भी हो सकती है। ऐसा प्रायः होता है कि मन की उद्विग्नता में अच्छे से अच्छा संगीत भी सुनना अच्छा नहीं लगता, स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन भी अरुचिकर लगता है तथा सुंदर से सुंदर दृश्य को भी आँख उठाकर देखने का मन नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? ऐसी दशा का बड़ा सुंदर चित्रण 'प्रसाद' की इन पंक्तियों में है-
"फैलती है जब उषा राग
जग जाता है उसका विराग
वंचकता, पीड़ा, घृणा, मोह
मिलकर बिखेरते अंधकार...."
ध्यान से देखने पर इन्हीं पंक्तियों में कारण के संकेत भी मिल जाएँगे। वास्तव में होता यह है कि मन की अवस्था और इन बाहरी तत्वों के बीच तादात्म्य नहीं बन पाता। इसी से ये चीज़ें बेतुकी लगती हैं। बेतुकापन आता ही इसलिए है क्योंकि तुक नहीं मिलता। जब भीतर और बाहर तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तब तुक मिल जाता है। प्रसाद जिसका ज़िक्र कर रहे हैं वो वंचित है, पीड़ित है। इसी से उसके मन में घृणा भी है। मन के इन भावों के साथ उषा की सुंदरता का मेल बैठ नहीं पाता। तो जब उषा राग फैलती है इनका विराग जाग जाता है।
प्रेम के पंथ के असफल पथिकों को मेलोडी पसंद नहीं आती। अगर किसी की चोट ताज़ा है और कहीं गलती से आपने मेलोडी बजाई है तब आपसे बड़ा अपराधी दुनिया में दूसरा नहीं है। ऐसी हालत में अलग ही तरह का संगीत अच्छा लगता है, उदासी भरा। उदासी भरे संगीत और मन की उदासी में तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तुक बैठ जाता है। मेलोडी के साथ नहीं बैठता। कभी उसके साथ भी तादात्म्य स्थापित होता रहा होगा, तुक बैठता रहा होगा। उस दशा में मेलोडी भी अच्छी लगती होगी। अब नहीं लगती। उपदेश हर समय अच्छे नहीं लगते हैं क्योंकि उनके निर्वेद भाव से हमारे मन के अन्य भाव नहीं मेल बैठा पाते हैं। कोई व्यक्ति अगर बहुत अधिक खुश हो और उसके आगे कोई दूसरा अपना दुखड़ा गाने लगे तो उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा। वो खींझ उठेगा। पर वही अगर स्वयं दुखी हो तो किसी दूसरे का दुःख वो पूरी आत्मीयता से सुनेगा और अच्छे से समझेगा भी।
 हमारे मन और बाहर का यह तादात्म्य ही बहुत दूर तक हमारी रुचि-अरुचि, पसंद-नापसंद के लिए उत्तरदायी है। तो शायद मेरे मन में भी कहीं कुछ ऐसा है जो इन ठूठे पेड़ों से तादात्म्य स्थापित कर लेता है।
किसी ठूठ को देखकर केवल उसकी वर्तमान दशा ही नहीं दिखती बल्कि उसके गुज़रे अतीत की भी बात मन में आती है। मन में यह बात आती है कि कभी इसपर भी कोमल-कोमल पत्तियाँ रही होंगी जो हवा के हल्के-हल्के झोंकों से झूम उठती होंगी, जो भोर में उषा की लाली और रात को चंद्रिका की ज्योत्सना से नहा उठती होंगी और जो दिनभर पंछियों का मधुर संगीत सुनती होंगी। आषाढ़ की पहली फुहार से इनका अभिषेक होता होगा। वर्षभर की जमी धूल की तहें धुल जाती होंगी। पतझड़ के दिनों में उन्हीं पत्तियों के गिर जाने से पेड़ उदास हो जाता होगा। बनाव-शृंगार विहीन, एकदम उदास। लेकिन पतझड़ के बाद जब वसंत आता होगा तब फिर उसकी शाखाओं पर नन्हीं कोपलें आती होंगी। पेड़ फिर मुस्कुराने लगता होगा। पर यह सब तो अब अतीत है। जो वर्तमान है वह एक अभिशप्त आकृति है। हवा अब भी बहती है, उषा की लाली अब भी बिखरती है, चंद्रिका की ज्योत्सना अब भी छिटकती है, आषाढ़ की फुहारें अब भी आती हैं और वसंत भी आता है। पर इसे कोई मतलब नहीं। न जाने जीवन का कौन सा ऐसा सत्य देख लिया है कि अब इस राग-रंग का कोई असर नहीं होता। अब क्या जेठ की धूप और क्या सावन की बौछार! उस अतीत से इस वर्तमान के वैषम्य को देखकर एक करुण भाव मन में उठता है। पर ठूठ को तो इस करुण भाव से भी कोई लेना-देना नहीं है। असल में लेने-देने का व्यापार उसका बहुत पहले ही छूट चुका है। धरती से अब वो कुछ नहीं लेता और किसी को कुछ देने लायक बचा भी नहीं है। पर फिर भी जी रहा है। अपने में मगन रहता है। जाने क्या सोचता रहता है। दुनिया की परवाह नहीं करता। दुनिया भी उसकी परवाह नहीं करती। ना ऊधो का लेना ना माधो को देना। गर्मी,धूप, बरसात में समान भाव से बना रहता है। कभी-कभी सोचता हूँ क्या इसे ही स्थितप्रज्ञता नहीं कहते?



हमारे मनोभावों को किसी आलंबन की आवश्यक्ता होती है। व्यक्ति प्रेम, क्रोध, घृणा, करुणा आदि स्वयं से ही नहीं कर सकता। इन सब का आधार हमारे आसपास का संसार बनता है। हमारा संसार हमारे आसपास की चीज़ों, लोगों, उनसे जुड़ी बातों और उनके तथा हमारे बीच के क्रिया-व्यापारों से बनता है। हमारा व्यवहार, व्यक्तित्व और हमारे मनोभाव बहुत दूर तक उनके हमारे संबंधों के द्वारा ही व्यक्त होते हैं। उनसब से हम किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं। किसी से कम किसी से ज्यादा। इस जुड़ाव के अनुरूप ही उनका महत्व हमारे लिए होता है।

ऐसी अनिवार्य बातों या घनिष्ठ लोगों का अभाव हमें प्रभावित करता है। उनके पास ना होने से हमारे संसार का कोई उतना ही महत्वपूर्ण अंश लुप्त हो जाता है, समाप्त हो जाता है। इस तरह का अभाव हमें तकलीफ़ देता है।
शायद ये सारा खेल महत्व का ही है। हम महत्व देते हैं, महत्वपूर्ण बनाते हैं और महत्वपूर्ण को पास नहीं पाने पर परेशान होते हैं। किसी बात को इतना महत्व दें ही क्यों? किसी के लिए ऐसा भाव ही क्यों हो कि उसके अभाव में स्वयं को असह्य पीड़ा सहनी पड़े।

ठूठ शायद इस बात को समझ गया है। इसीलिए वह स्थितप्रज्ञ है। हवा बहती है तो बहे, उषा की लाली बिखरती है तो बिखरे, पंछी गाते हैं तो गएँ, सावन बरसता है तो बरसे, वसंत आता है तो आए- फूल खिलें, तितलियाँ उनपर मंडराएँ, भौंरें गुनगुनाएँ- जो भी हो, ठूठ को क्या? पतझड़ में वो उदास नहीं होता और वसंत के आने पर प्रसन्न भी नहीं होता। वो प्रसन्नता और अप्रसन्नता के चक्र से मुक्त हो चुका है। हम भी क्यों नहीं मुक्त हो जाते हैं? पर नहीं, महत्व और मत्वपूर्ण के इस बंधन से इतनी सहजता से मोक्ष नहीं मिलने वाला।

जिस प्रकार ऊर्जा का क्षय नहीं बल्कि रूपांतरण होता है, उसी प्रकार हमारे मनोगत भाव भी रूपांतरित ही होते हैं, उनका नाश नहीं होता। एक भाव दूसरे भाव में रूपांतरित हो जाता है और उसकी सत्ता बनी रहती है। यह संभव है कि कल को जो व्यक्ति हमें बहुत प्रिय हो, जिसे देखे बिना, जिससे बोले-बतियाए बिना हमें चैन ही न मिलता हो, आज हम उसे देखने से भी बचें। पर यह भाव भी उस प्रेम का परिस्थितिगत रूपांतरण मात्र है। पुरानी मित्रता यदि शत्रुता में बदल जाए तो भी वह उस मित्रता का ही रूपांतरण है। मित्रता अगर गाढ़ी और पुरानी है तो वह शत्रुता पर भारी पड़ सकती है। लेकिन दोनों ही स्थितियों में भाव का अभाव तो नहीं हुआ न?

मन बड़ा विचित्र है, कुछ भी भूलता नहीं है। इसलिए महत्व और महत्वपूर्ण के बंधन से मोक्ष भी नहीं है। ठूठ! इस मामले में तुम मेरे बड़े भाई ठहरते हो। तुम इस बंधन को निर्ममतापूर्वक तोड़ चुके हो। तुम मुक्त हो चुके हो। खुद में मगन रहते हो। किसी की परवाह नहीं करते। कोई चिंता नहीं, किसी से कोई गरज नहीं। गर्मी-धूप-बरसात में समान भाव से तने हुए खड़े रहते हो। मानो कह रहे हो- 'कुछ नहीं है, फिर भी मैं हूँ।'
(25-12-18)

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