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ठूँठ

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सूखे पेड़ में भी सुंदरता दिख सकती है। और अगर मेरे इस कथन को गले उतारना कठिन जान पड़े तो मैं इसे और स्पष्ट करते हुए यह कहूँगा कि सूखे पेड़ भी हमें आकृष्ट कर सकते हैं। कम से कम मुझे तो करते हैं। मन के न जाने किस अनजान कोने में जाने कौन सा ऐसा भाव है जो इन पेड़ों से जुड़ाव महसूस करता है। मैं विश्वविद्यालय परिसर के सारे ठूठे पेड़ों को पहचानता हूँ। राह चलते जब इनपर नज़र पड़ती है तो जैसे उलझकर रह जाती है। उसमें भी अगर वो ठूठ शीशम का हो तो क्या कहना! जाने क्यों इन्हें देखकर अपनेपन का भाव में मन में उमड़ता है? ऐसा क्यों होता है? व्यक्ति की रुचि-अरुचि पर उसकी मनोदशा का बड़ा प्रभाव पड़ता है। एक समय जिस बात या जिस वस्तु के प्रति किसी की रुचि हो किसी अन्य दशा में उसके प्रति अरुचि भी हो सकती है। ऐसा प्रायः होता है कि मन की उद्विग्नता में अच्छे से अच्छा संगीत भी सुनना अच्छा नहीं लगता, स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन भी अरुचिकर लगता है तथा सुंदर से सुंदर दृश्य को भी आँख उठाकर देखने का मन नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? ऐसी दशा का बड़ा सुंदर चित्रण 'प्रसाद' की इन पंक्तियों में है- "फैलती है जब उषा राग ...

चेतना बनाम जड़ता

           जड़ता में स्थिरता है, चेतनता उसका विरोधी गुण है जो जड़ता के प्रति विद्रोह है। जड़ता में जकड़न है, बंधन है। चेतना उस जकड़न से, उस बंधन से मुक्ति चाहती है। जड़ता का स्वभाव है यथास्थिति, अर्थात जो जैसा है वैसा ही रहे। चेतना हर वस्तु में नए-नए रूपों का संधान करती है। 'जड़ता है जीवन की पीड़ा निस-तरंग पाषाणी क्रीड़ा' जड़ता पाषाण का गुण है। यदि किसी तक्षक की चेतना उस पाषाण की जड़ता में नारायण की करुण मूर्ति देखने में सक्षम है तो उसकी चेतना पाषाण की जड़ता का विरोध करेगी और वो उसकी अनगढ़ता को नारायण के स्वरूप में गढ़ देगा। यदि वो जड़ पाषाण शिल्पी के हाथ न लगा तो अपनी जड़ता में स्थिर रहेगा। स्थिरता ही उसका गुण है। किंतु चेतना यथास्थितिवादी नहीं होती। उसे परिवर्तन चाहिए, नवीनता चाहिए, मुक्तिबोध के शब्दों में - 'जो है उससे बेहतर चाहिए।' जड़ता की स्थिति में कोई तरंग नहीं होती, कोई हलचल, कोई संवेदना नहीं होती। तरंगें चेतनावस्था में उठती हैं- सुख-दुखात्मक तरंगें। हममें चेतना है, अतः हम सुखी होते हैं तो सुख अतिरेक में नाचने लगते हैं और दुखी होते हैं तो दुख की अतिशयता में वि...

तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन

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'तुमुल कोलाहल कलह में' का अर्थ *गीत की पृष्ठभूमि: प्रसाद जी के 'तुमुल कोलाहल कलह में' गीत को समझने के लिए सबसे पहले यह जानना होगा कि यह लिया कहाँ से गया है तथा इसका संदर्भ क्या है? पुराणों में सामान्य प्रसंगों के क्रम में स्तुति या स्त्रोत आते हैं|  'रामचरितमानस' में भी 'हरिगीतिका' आदि छन्दों में स्तुति आदि की योजना हुई है। मानस में आए ये छन्द गीत ही हैं। ये हमेशा स्तुति के रूप में ही नहीं आए हैं, यदाकदा वर्णन के क्रम में भी प्रयुक्त हुए हैं। दोनों ही रूपों में इनकी रूपरेखा आज के गीतों जैसी ही है जहाँ ये वातावरण को मुखर बना देते हैं, भावों की गहराई को बढ़ा देते हैं तथा उन्हें और स्पष्ट करने का भी काम करते हैं। प्रसाद जी का 'तुमुल कोलाहल कलह में...' भी एक ऐसा ही गीत है जो कामायनी के निर्वेद सर्ग से लिया गया है।      जैसा कि ऊपर कहा गया है इस गीत को समझने के लिए इसका संदर्भ समझना जरूरी है। अतः कामायनी की कथा संक्षेप में (निर्वेद सर्ग तक) इस प्रकार है-   देव संस्कृति के ध्वंसावशेष के रूप में मनु प्रलय की लहरों से किसी प्रकार से बच कर हिमालय क...

निराला, बादल राग 5

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प्रस्तुत पंक्तियाँ परिमल काव्य संग्रह के बादल-राग 5 की हैं। इसके पहले महाप्राण निराला ने बादल राग 1,2,3 और 4 में बादल पर विभिन्न पक्षों को लक्ष्य कर के विभिन दृष्टिकोणों से लिखा है। इन पंक्तियों में उन्होंने बादलों के चाक्षुष सौंदर्य का भाँति-भाँति से बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है।         नयनों के अंजन निरंजन हो चले हैं। अर्थात कवि के अनुसार बादलों की श्यामलता जो असीम आकाश के नयनों का अंजन प्रतीत होती है वह अब हल्की हो चली है। वर्षा होते रहने से बादलों का कालापन दूर हो जाता है, कवि ने उसी ओर संकेत किया है।         बादल अस्थिर मति के हैं, अपनी दिशा तय ही नही कर पाते हैं। सो कभी इधर कभी उधर, कभी धीमे कभी तेज, कभी बहुत नीचे कभी बहुत ऊपर चंचलता से चलते हैं। वर्षा के कारण नद-नाले, सर-निर्झर सब भर गए हैं। कहीं किसी ओर भी जल की कमी नही है, हर  ओर तरल जल का कलकल प्रवाह है।          बादल किसी किशोर या नवयुवा की भाँति उत्साह से परिपूर्ण हैं। वे उत्साह में उमड़ते हैं, फिर बरसते-बरसते संकुचित होने लगते हैं और अंत मे...

आशा है।

                                                            *१ स्रष्टा उन दिनों सृष्टि करने में व्यस्त थे। प्रतिदिन ही वे किसी न किसी जीव की रचना करते थे और प्रत्येक जीव की रचना करते समय वे किसी विशेष गुण या प्रवृति को ध्यान में रखते थे। हाथी का सृजन उन्होंने बल को ध्यान में रख कर किया तथा घोड़े का सृजन हुआ गति को ध्यान में रख कर। इसी तरह विभिन्न प्रकार के जीवों की रचना होती गई और उनसे धरित्री सुशोभित होती गई। उस दिन वे कुछ उद्विग्न प्रतीत हो रहे थे। कारण यह था कि  वे अपनी कल्पना शक्ति की सीमा तक सृजन कर चुके थे परन्तु मानसिक तृप्ति उन्हें अब भी नहीं मिली थी। बड़े ही अन्यमनस्क ढंग से उन्हंने एक जीव की रचना शुरू की परन्तु आज  उनके मन में कोई विशेष गुण नहीं था, जिसके आधार पर वे अपनी रचना करते। सृजन क्रिया के संपादन के पश्चात जब उनकी दृष्टि अपनी रचना पर पड़ी, तब वे सोच में पड़ गए। यह नया जीव न हाथी के जैसा विशाल और बलवान ही था ...

कबीर की भक्ति के सामाजिक सन्दर्भ की प्रासंगिकता पर विचार

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हर युग का साहित्य अपने समय के समाज से प्रभावित होता है। साहित्य या आध्यात्मिक चेतना के लिए समाज-निरपेक्ष होना संभव नहीं है। कबीर की आध्यात्मिक चेतना अथवा उनकी भक्ति की विशेषता यही है कि यह समाज से जुड़ी  हुई है। उनकी भक्ति में सामान्य गृहस्थों के लिए भी स्थान है तथा यह भौतिक जगत की भी पूर्णतः उपेक्षा नहीं करती है। उनकी कविता भी इसी कारण से विशिष्ट है। कबीर की कविता निरीह-शोषित जनता के साथ खड़ी होती है, उनका स्वर बनती है तथा शोषक सामंत वर्ग का ज़ोरदार ढंग से विरोध भी करती है। कबीर की कविता अथवा उनकी भक्ति या साधना-पद्धति की सामाजिक प्रासंगिकता पर विचार करने के क्रम में इस बात पर भी विचार करना होगा कि कबीर की भक्ति किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारकों का प्रतिफल है? सामाजिक परिवर्तन में उसकी भूमिका क्या है? तथा समाज के लिए उसकी उपयोगिता क्या है? कबीर मध्ययुगीन संत कवि है। मध्य-युग हिंदी साहित्य के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण काल रहा है। मध्ययुग का पूर्वार्द्ध जहाँ भक्ति आंदोलन का काल रहा है वहीँ इसका उत्तरार्द्ध घोर भौतिकवादी मान्यताओं वालें रीतिग्रंथकारों का भी काल रहा है। भारत ...

रीतिरात्मा काव्यस्य

रीति का अर्थ -  संस्कृत काव्य परंपरा में 'रीति' सिद्धांत के प्रवर्तक आचार्य वामन माने जाते हैं| रीति के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि, 'रीतिरात्मा  काव्यस्य ; विशिष्टापदरचना रीति: |'  उन्होंने ही सर्वप्रथम गुण  और अलंकार में भेद स्पष्ट किया| उनके अनुसार काव्य का नित्य धर्म माधुर्य, प्रसाद और ओज आदि गुण ही हैं तथा इन्हीं गुणों पर आधृत रीतियाँ ही काव्य की अंतरात्मा हैं| हिंदी साहित्य में रीति शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में हुआ है| अलंकार, रस,छंद इत्यादि काव्यगत विशेषताएँ जिनका ज्ञान काव्य रचना हेतु आवश्यक है, संयुक्त रूप  से काव्य रीति कहलाती हैं|  *रीति कालीन काव्य का उद्भव-   हिंदी साहित्य के मध्यकाल का उत्तरार्द्ध (जो रीति काल के नाम से प्रसिद्ध है) की उतपत्ति के बीज कुछ तो तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिवेश में तथा कुछ भक्ति काल में ही निहित है| रीति कालीन कविता का मुख्य विषय शृंगार रहा है| इसी कारण पं विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे शृंगार काल कहा है| शृंगार रस का स्थायी भाव है रति और रति भाव एक मूलभूत मानवीय प्रवृति है| मानव ह्रदय ...